Saturday 21 November 2020

💖💖 रात का इंतज़ार 💖 💖


 

Monday 21 September 2020

🌺🌺 नया जन्म - (भाग 5) 🌺🌺

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मेरे मन ने आश्वासन दिया। हाँ, ये वही देवी थी। कभी-कभी कोई अनजान हमारे लिए कितना महत्वपूर्ण हो जाता हैै..!!! जब तीन दिन की बेहोशी के बाद मेरी आंखें खुली थीं तो वो मेरे लिए स्वर्ग की देवी थीं। फिर पता चला कि मैं हाॅस्पिटल में हूँ और वो यहां की सिस्टर इंचार्ज हैं। 

एक नर्स और मरीज़ से कुछ ज़्यादा था हमारे बीच। एक अपनापन, जिसे न पाकर मैं बेचैन हो उठी थी। पर आज जो पता चला, उसने मुझे पूरी तरह बदल दिया। मेरी ज़िन्दगी अब उनकी अमानत है। वो ज़िन्दगी, जिसके बच जाने का मुझे अफ़सोस था। 

तभी दरवाज़े की आहट ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा। जिसका दो दिनों से इंतज़ार कर रही थी... मेरी स्वर्ग की देवी, वो ममतामयी श्रद्धा की मूरत मेरे सामने खड़ी थी पर जाने मेरे सारे शब्द कहाँ गुम गए...!!! क्या कहूँ, क्या पूछूं.... या उनके चरणों में गिर जाऊँ, कुछ सूझ ही नहीं रहा था....!!! 

इतने में वो मेरे पास आकर बैठ गईं। मैं हैरान-परेशान सी बस उन्हें देखे जा रही थी। उनके मुस्कुराते चेहरे ने मुझे मोह-सा लिया और मन अपने-आप ही शांत हो गया। मुझे इस तरह देखकर खुद ही बोलीं - आज मेरी बेटी का जन्मदिन है। 

बोलते-बोलते कुछ उदास हो गईं। फ़िर खुद को संयत करके बोलीं - उसे मालपुए बहुत पसंद थे इसीलिए आज बनाए हैं। 

चखकर बताओ कैसे बने हैं..... हाथ में लिया टिफ़िन खोलकर मेरी ओर बढ़ाते हुए उन्होंने कहा। फ़िर खुद ही बोलीं - लाओ, आज मैं तुम्हें अपने हाथों से खिलाऊं, कहकर एक टुकड़ा मेरे मुंह में डाल दिया। उसे चखते ही मैं फूट-फूटकर रोने लगी। ममता जी घबरा गईं। 

क्या हुआ....रोने क्यों लगी.... क्या तुम्हें मालपुए पसंद नहीं?? 

मुझे मम्मा की याद आ गई। वो भी मुझे ऐसे ही खिलाती थीं... मैं सिसकते हुए बोली।

अन्नी, मेरा बच्चा....बोलते हुए उनका गला रूंध गया। मेरे माथे को चूमकर उन्होंने ज़ोर से मुझे बांहों में भर लिया। जैसे खुद से दूर न करना चाहती हों और मैं भी फ़िर से छः साल की अन्नी बन गई। 

बहुत देर तक वो मुझे ऐसे ही संभाले रहीं। जब मेरा सिसकना बंद हुआ तो उन्होंने अपने हाथों मेरा चेहरा साफ़ किया और बिखरे हुए बाल ठीक किये। तभी मेरी नज़र उनके कोट पर गई जिसे मैंने रो-रोकर गीला कर दिया था।

साॅरी, मेरी वजह से आपकी ड्रेस गंदी हो गई।

कोई बात नहीं बच्चा, इतना भी गंदा नहीं हुआ है कि मेरी अन्नी को सॉरी बोलना पड़े। इस बात से हम दोनों ही मुस्कुरा दिये। 

तुमने ये तो बताया ही नहीं कि मालपुए कैसे बने हैं..?? 

बहुत ही स्वादिष्ट हैं। इन्हें चखकर लगा जैसे अमृत चख लिया हो। 

बस-बस, मुझे चने की झाड़ पर चढ़ाने की ज़रूरत नहीं है। इतना सुनकर मैं खिलखिला कर हंस पड़ी। अचानक दिमाग़ ने याद दिलाया कि अभी हंसना भूली नहीं हूँ और मैं हंसते - हंसते चुप हो गई। 

क्या हुआ अन्नी, चुप क्यों हो गई बच्चा... तुम्हें पता है, तुम हंसते हुए बहुत प्यारी लगती हो, बिल्कुल गुड़िया की तरह। फिर इतना उदास क्यों रहती है मेरी प्रिंसेस...!!! 

हमेशा अपना दर्द छुपा कर रखने वाली मैं, आज पिघलने लगी.... 

मैं, मम्मा और पापा... हमारा छोटा-सा परिवार था। मेरे दो ताऊजी भी थे जो अपने - अपने परिवार के साथ यहां इंडिया में रहते थे। दरअसल पापा एक साइंटिस्ट थे और हम तीनों हांगकांग में रहते थे। जब मैं पांच साल की थी वहां एक महामारी फैली। देखते ही देखते ये बीमारी कई देशों में फैल गई। लोग मरने लगे। हर तरफ़ अफ़रा-तफ़री का माहौल था। दुनिया भर के वैज्ञानिक उस बीमारी का इलाज ढूंढने की कोशिश कर रहे थे। 

मेरे पापा भी इसी कोशिश में लगे थे और कई महीनों की मेहनत के बाद पापा को इसमें कामयाबी मिल भी गई। वो बहुत खुश थे और हम सब भी। अगले दिन जब वो लैब से लौटे तो उनका चेहरा उतरा हुआ था। मम्मा ने पूछा तो पापा ने मेरे सामने कुछ भी न पूछने का इशारा किया। बहुत छोटी थी मैं.... फिर भी पापा की परेशानी ने मुझे परेशान कर दिया था। 

रात को मम्मा - पापा की बातों से मेरी नींद खुल गई। पापा मम्मा को बता रहे थे कि उनकी कंपनी उनसे वैक्सीन का फ़ार्मूला चाहती है ताकि उसमें कुछ फेरबदल करके महंगे दामों  में बाज़ार में उतारा जाए। इससे कंपनी को बहुत ज़्यादा लाभ होगा। जबकि पापा ने जो वैक्सीन बनाई थी, वो बहुत कम दाम में बाज़ार में आती। 

पापा उनकी बात मानने के लिए तैयार नहीं थे इसलिये उनके सीनियर साइंटिस्ट उन्हें धमका रहे थे। पापा को पैसे लेकर मुंह बंद रखने को कहा जा रहा था। ये पापा की सालों की मेहनत का नतीजा था। वो इस तरह के वायरस पर कई सालों से रिसर्च कर रहे थे। मैंने पापा को इतना मायूस पहले कभी नहीं देखा था।

क्यों न हम अपनी बात सीधा यहां की सरकार तक पहुंचाएं। वो ज़रूर समझेंगे - मम्मा ने सुझाव दिया। 

ठीक है... मैं कल सुबह ही जाउंगा। अब सो जाओ। पापा मुझे सीने से लगा कर सो गए। 

सुबह जब नींद खुली तो मैंने मम्मा को आवाज़ लगाई। जब वो काफ़ी देर तक नहीं आईं तो मैं बाहर निकली। सोफ़ा के पास मम्मा - पापा ज़मीन पर गिरे पडे़ थे। मैं भागकर पास गई तो देखा कि पापा का पूरा चेहरा खून से लाल था और मम्मा का गला खून से सना था। मैंने उन्हें उठाने की बहुत कोशिश की पर वो नहीं उठे.... कहते हुए मैं फिर से सिसकने लगी। 

चुप हो जा मेरा बच्चा.... वो मेरे आंसू पोंछने लगीं। 

जिस ममता की छांव से मैं महरूम थी, आज मिली तो दिल ने चाहा कि उसे जी भर के महसूस करूं इसलिए उनकी गोद में सर रखकर लेट गई। हम दोनों ही अधूरे थे इसीलिये शायद एक-दूसरे को पूरा कर रहे थे। इन पलों ने हमें सुकून से भर दिया था। वो सुकून, जिसकी हमने उम्मीद ही छोड़ दी थी। वो इतने प्यार से मेरा सर सहला रही थीं कि मुझे नींद आ गई। 

अन्नी.... उठ जाओ प्रिंसेस। देखो सुबह हो गई है... एक प्यारी सी आवाज़ मुझे उठा रही थी। 

मम्मा.... क्या मैं आपको मम्मा बुला सकती हूँ प्लीज़...!!! 

हाँ प्रिंसेज, मैं मम्मा ही तो हूँ तुम्हारी.... मेरा सर सहलाते हुए कहा उन्होंने और मैं बच्चों की तरह उनसे लिपट गई। 

तभी मेघना सिस्टर हड़बड़ाते हुए कमरे में आईं। सिस्टर, पूरे देश में कोरोना वायरस की वजह से पंद्रह दिनों का लाॅकडाउन लग गया है। 

क्या.... हम मां-बेटी के मुंह से एकसाथ निकला।


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✍️✍️ प्रियन श्री ✍️✍️

Monday 14 September 2020

🌺🌺 नया जन्म - (भाग 4) 🌺🌺

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दो दिन हो गए पर ममता सिस्टर दिखाई न दीं। आमतौर पर वो 3-4 चक्कर लगा ही लेती थीं मेरे रूम के। कहीं मेरा उनकी बेटी के बारे में पूछना उन्हें बुरा तो नहीं लग गया...!!! 

मैं भी कितनी बुद्धू हूँ। खुद मुझे पसंद नहीं कि कोई मेरे जीवन की बखिया उधेड़े तो क्या ज़रूरत थी उनके निजी जीवन के बारे में पूछ-ताछ करने की...!!! ये सोचकर खुद पर गुस्सा तो बहुत आ रहा था लेकिन फिर ये ख्याल भी मन में आता कि क्या ये इतनी बड़ी ग़लती है...???

एक बेचैनी सी हो रही थी मन में। बिल्कुल वैसे ही जैसे बचपन में सुबह मम्मा को अपने पास न पाकर होती थी। तब ज़ोर - ज़ोर से आवाज़ लगाकर उन्हें अपने पास बुलाती। मम्मा कहीं भी होती, भाग कर मेरे पास आतीं और खूब सारा दुलार करतीं। एक अरसे बाद ये एहसास फिर से मन में जागा लेकिन ये सोचकर खुद को समझाने लगी कि वो भला मेरे लिए ये भाव क्यों रखने लगीं..!!!

इसी उधेड़बुन में थी कि दरवाज़े पर आहट हुई। एकदम से लगा कि ममता सिस्टर होंगी। दरवाज़ा खुला तो देखा, मेघना सिस्टर थीं। मेरी शाम की दवा लेकर आई थीं। अचानक से चेहरे पर आई चमक, उदासी में तब्दील हो गई। जाने कैसे उन्होंने मेरे मनोभाव भांप लिये और हाथ पर लगे वीगो में दवा इंजेक्ट करते हुए कहा - कुछ पूछना है ? 

मैं चौंक गई। क्या मेरा चेहरा मेरी बेचैनी बयाँ कर रहा है..!!! 

मेरी हाथ की नसों को हल्के - हल्के सहलाते हुए वो मुस्कुराईं। 

कुछ कहना चाहती हो..?? 

जी वो ममता सिस्टर नहीं दिखाई दे रहीं दो दिनों से। वो ठीक तो हैं ना... मेरा मतलब छुट्टी पर हैं क्या ??? मैं एक ही सांस में बोल गई। 

सुनते ही वो ज़ोर से हंस पड़ीं। 

मतलब उन्होंने तुम्हें भी अपना दिवाना बना लिया। हमारी ममता दीदी हैं ही ऐसी। जो भी उनसे मिलता है, बस उन्हीं का हो जाता है। 

मैं अभी भी एकटक उन्हें देखे जा रही थी। वो समझ गईं कि ये मेरे सवाल का जवाब नहीं था। 

वो ठीक हैं.... बस थोड़ी उदास हैं। शायद इसीलिए तुमसे मिलने नहीं आईं। 

जी धक् से हो गया कि कहीं मेरी ही वजह से तो नहीं..!!! हिम्मत बांध कर बस इतना ही पूछ पाई - क्यों उदास हैं..?? 

आज उनकी बेटी का जन्मदिन है। हमेशा हंसती-मुस्कुराती रहने वाली ममता दीदी, इन दिनों उदास हो जाती हैं। 

मेरी जिज्ञासा ने ज़ोर मारा। कहाँ है उनकी बेटी सिस्टर...?? 

वो इस दुनिया में नहीं है... एक लंबी सांस भरते हुए मेघना सिस्टर ने कहा। 

क्या... कब, कैसे....??? मेरे मुंह से बेसाख़्ता निकल पड़ा। 

बहुत छोटी थी, जब पैसों की कमी के कारण उसका इलाज नहीं हो पाया और वो चल बसी। 

ममता दीदी ने बहुत दुःख झेले जीवन में... पर ये सबसे बड़ा दुःख था। लेकिन बहुत हिम्मती हैं वो, तभी तो आज यहाँ हैं। अपनी इकलौती औलाद को खो देने के बाद उन्होंने जैसे प्रण ही ले लिया कि वो अपने सामने किसी को भी पैसों की कमी के कारण दम नहीं तोड़ने देंगी। तुम्हारे इलाज का ज़िम्मा भी उन्होंने ही उठाया है।

मैं अवाक् रह गई ये सुनकर। मुझे निःशब्द देख उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखा, तब जाकर मुझे कुछ सुध आई। 

तुम्हें एक बात बताऊँ.... ममता दीदी इन दो दिनों में भले ही तुमसे मिलने न आई हों, पर ड्यूटी आने के बाद और जाने से पहले दरवाज़े के कांच से तुम्हें दो पल के लिए ज़रूर देखती हैं।शायद कुछ ख़ास लगाव हो गया है उन्हें तुमसे। 

मैं इस निगाह से उनकी तरफ़ देख रही थी जैसे पूछ रही हूँ - क्या सच में....!!!! 

आज नाईट शिफ़्ट है उनकी। जब वो ओवर लेने आएंगी तो उन्हें बता दूंगी कि तुम उन्हें याद कर रही हो। देखना, बहुत खुश हो जाएंगी.... कहकर मेघना सिस्टर चली गईं। 

उनके जाने के बाद मेरी निगाहें सामने घड़ी पर अटक गईं। आज से पहले घड़ी को इतनी गौर से कभी नहीं देखा था। ये सेकेंड की सुई इतने धीरे कब से चलने लगी... और एक मिनट तो जैसे पांच मिनट में बीत रहा था। कब आठ बजेंगें और कब वो दया की मूर्ति मुझे दर्शन देगी...!!!

जैसे - तैसे करके एक घंटा बीता। घड़ी की सुईयों के आठ बजाते ही मेरी आंखें दरवाज़े पर टंग गईं। वो ड्यूटी पर आएंगी तो ज़रूर मुझे देखने आएंगी.... दो पल के लिए ही सही। तभी कांच के उस पार मुझे दो आंखें दिखीं। मुझे अपनी ओर देखते जान वो आंखें पहले तो कुछ पीछे हुईं और फिर ओझल हो गईं। क्या ये वही थीं....!!!! 


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✍✍️ प्रियन श्री ✍️✍️

Friday 4 September 2020

🌺🌺 नया जन्म - (भाग 3) 🌺🌺

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कहां खोई हुई हो, देखो तो तुमसे मिलने कौन आया है !!! 

वापस हक़ीक़त की दुनिया में खींचती ये आवाज़ थी यहां की सिस्टर इंचार्ज ममता जी  की... मेरी सफ़ेद कपड़ों वाली स्वर्ग की देवी। नज़र घुमाई तो देखा, मेरे बाॅस और कुछ सहकर्मी गुलाब के फूलों का गुलदस्ता और कुछ फल लिए सामने खड़े थे।

आपको होश में देखकर बहुत अच्छा लग रहा है वर्ना तो काफ़ी डर गए थे हम सब। अब कैसी तबियत है आपकी..!!! मेरे बॉस रवींद्र नाथ जी ने पूछा। 

जी ठीक हूँ... आप सब का शुक्रिया, पर इन सबकी ज़रूरत नहीं थी। 

कैसी बात कर रही हैं अनाहिता जी...!!! भले ही आपको ज़्यादा वक्त नहीं हुआ हमारे साथ काम करते हुए, मगर फिर भी आप हमारे कार्यालयी परिवार का हिस्सा हैं। 

अब भई हम तो मानते हैं, आपका पता नहीं.... ठहाके गूंज उठे उस नीरस से कमरे में। 

चंचला मैडम बिल्कुल सही कह रही हैं। अब बस आप जल्दी से ठीक होकर कार्यालय ज्वाइन कर लीजिए। 

सिस्टर, कब तक डिस्चार्ज हो जाएंगी अनाहिता जी... मिलिंद सर ने पूछा। 

बस एक हफ़्ते की मेहमान हैं ये हमारे यहाँ। उसके बाद आप अपनी अमानत ले जा सकते हैं। 

थैंक्यू सिस्टर, किसी भी चीज़ की ज़रूरत हो तो प्लीज़ बताईयेगा। अच्छा अनाहिता, हम लोग आते रहेंगे। Get well soon.... रवींद्र नाथ जी ने कहा। 

बहुत जिंदादिल लोग हैं, है ना... सबके जाने के बाद सिस्टर ने कहा। 

हम्म्म.... 

तुम इतनी उदास और गुमसुम क्यों रहती हो..??? 

खुशी किस बात की मनाऊँ सिस्टर...!!! 

इतने बड़े हादसे से तुम बच गई। ये क्या कम बड़ी बात है ?? 

काश कि बचती ही ना.... 

ऐसा नहीं कहते। ईश्वर ने तुम्हें नया जीवन दिया है तो ज़रूर उसका कुछ मक़सद होगा। 

अब तक की ज़िन्दगी तो बेमक़सद ही थी। अब क्या बदल जाएगा...!!! 

अभी तुमने ज़िंदगी जी ही कितनी है, जो ऐसा कह रही हो..?? 

इस छोटे से जीवन में ही इतना सब देख लिया है सिस्टर कि अब और कुछ बचा ही नहीं देखने को। घर - परिवार, नाते - रिश्तेदार.... सबकी असलियत तो जान चुकी हूँ। 

ज़िंदगी सिर्फ़ खुद के लिए जीने का नाम नहीं है। उनके लिए जियो, जिनका कोई नहीं है। दुनिया में केवल तुम ही अकेली नहीं हो अन्नी। 

अन्नी... आप मेरा ये नाम कैसे जानती हैं ??? इस नाम से तो केवल मम्मा - पापा बुलाते थे मुझे। मेरे मन में उत्सुकता जागी और कईयों सवाल दिमाग में घूम गए। 

सिस्टर एक पल को चौंकी फिर शांत हो गईं। 

मैं भी मेरी बेटी को प्यार से अन्नी ही बुलाती थी। दरअसल उसका नाम भी अनाहिता ही था। 

था मतलब...??? मैंने थोड़ा हिचकिचाते हुए पूछा। 

जवाब में सिस्टर बिना कुछ कहे चली गईं और मैं बस उन्हें जाते देखती रही। जाने क्यों इतनी हिम्मत ही नहीं हुई कि उन्हें रोक सकूं। उनकी चुप्पी और उदास होने की वजह पूछ सकूं। 

चेहरे पर खूबसूरत मुस्कान सजाए लोग, दिल में कितना दर्द लेकर चलते हैं... कौन जानता है?? सबकी अपनी कोई-न-कोई कहानी है। मेरी खुद की ज़िन्दगी भी तो एक कहानी बन चुकी है........ 

घर आने के बाद कई दिनों तक मैं इस सदमे में रही। महीनों लग गए, जो हुआ उसे स्वीकार करने में। तब तक मेरी स्थिति चाभी वाली गुड़िया जैसी रही। जैसे - जैसे घर का रूटीन बताया जाता, जानू  को बांह में दबाए... वैसे ही करती जाती। बिना किसी सवाल, संशय और शिकायत के। यहां तक कि मेरे दिमाग ने सोचना भी बंद कर दिया था। हालांकि मुझे सामान्य करने में घर के लोगों ने बहुत मेहनत की। 

घर.... ये मेरे अनाथाश्रम का नाम था। सिर्फ़ नाम से ही नहीं, वो वाकई घर था। मेरे जैसे कई बच्चों का, जो बेघर थे। बाकी बच्चों जैसी सामान्य तो मैं कभी न हो सकी.... पर हां, उस हादसे से आगे बढ़ने में उन्होंने मेरा बहुत साथ दिया। बहुत कम बोलती थी मैं और घुलती - मिलती भी काफ़ी कम थी। शायद इसीलिए कभी किसी ने मुझे गोद नहीं लिया। 

फिर भी कभी किसी चीज़ के लिए मुझे डांटा नहीं गया। मेरा पूरा ख़्याल रखा गया... अच्छी शिक्षा से लेकर हर संभव सुख - सुविधा तक। बहुत धैर्य के साथ उन्होंने मुझे संभाला। मुझमें ये विश्वास जगाया कि मैं भी कुछ हूँ। इस काबिल बनाया कि खुद को संभाल सकूं। 

आज सोचती हूँ तो श्रद्धा से आंखें झुक जाती हैं। अगर उन्होंने भी मुझे ठुकरा दिया होता तो मेरा क्या होता....??? क्या मैं भी सड़कों पर भीख मांगती या देह-व्यापार में ढकेल दी जाती...??? इस सोच से ही मेरे रोएँ खड़े हो गए।


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✍️✍️...प्रियन श्री...✍️✍️

Thursday 27 August 2020

🌺🌺 नया जन्म - (भाग 2) 🌺🌺

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कल तक मैं खुद में ही गुम, एक अनजान सी लड़की थी। जिसका इस दुनिया में कोई हाल-चाल तक लेने वाला नहीं था..... नितांत अकेली। पर इस दुर्घटना ने जैसे सब कुछ बदल दिया। तीन दिन की बेहोशी के बाद आया होश, मेरे लिए "नये जन्म" जैसा था।  बरसों बाद अपनेपन का एहसास हुआ था, वो भी अनजानों से... 

पूरा हॉस्पिटल स्टाफ़ छोटे से बच्चे की तरह मेरी देखभाल करता था और उस प्राइवेट वार्ड के बेड पर निःशक्त लेटी मैं.... सारा दिन इसी सोच में डूबी रहती कि दुनिया में रिश्ते - नातों का क्या मतलब है...!!!

जिनसे ख़ून का रिश्ता था, उनका ख़ून तो सालों पहले ही सूख गया। एक भरे - पूरे घर - ख़ानदान से अनाथाश्रम तक के सफ़र ने मुझे, मुझमें ही कहीं मार दिया था। साथ ही मर गई थीं मेरी सारी संवेदनाएं.....आख़िरी बार तब रोई थी, जब मेरे अपने मुझे अनाथाश्रम छोड़ कर जा रहे थे। तब, जब अपनों की सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी।

"मुझे छोड़ कर मत जाइए प्लीज़"....

एक छोटी-सी बच्ची, जिसने अपना सब कुछ खो दिया था। गिड़गिड़ा रही थी... उन्हीं अपनों के आगे जो कभी उसे सर-आंखों पर बिठाते थे। समझ ही नहीं पा रही था कि ये क्या हो रहा है उसके साथ.... और क्यों..????

जल्द ही समझ आ गया कि मैं उनके सर का बोझ थी, जिसे वो बड़ी आसानी से उतार कर चलते बने थे। उसके बाद से मैं कभी नहीं रोई, क्योंकि जानती थी... अब कोई चुप कराने और आंसू पोंछने नहीं आएगा। वैसे भी, ये वाला "घर"  सिर्फ़ नाम का घर था... जो सर पे छत, तन पर कपड़े और मुंह में निवाले से अधिक नहीं था मेरे लिए। 

फिर भी इस बुरे वक्त में अगर कोई मेरे साथ था तो वो थी जानू .....मेरी डॉल।  4 साल की थी जब पापा से ज़िद की थी कि मुझे भी मेरी जानू चाहिए। दरअसल पापा, मम्मा को जानू कहते थे। पूछने पर बताते कि जैसे बेडटाईम स्टोरी के जादूगर की जान तोते में बसती थी, वैसे ही मेरी जान आपकी मम्मा में बसती है। अब तो हक़ीक़त की दुनिया से बेख़बर मैं, पापा की जादूई कहानियों की दुनिया में डूबती - उतराती रहती। 

एक दिन फ़्राॅक का कोना पकड़े पापा के सामने खड़ी हो गई। 

क्या हुआ प्रिंसेज़...!!! सारी फ़ाइलें एक तरफ़ करते हुए उन्होंने पूछा। 

 पापा, मेली जान किछमें बत्ती है...??? 

आप बताओ... वो मुस्कुराए और उल्टा सवाल मुझ पर दाग दिया। 

मुजे नई पत्ता... जवाब तो वैसे भी मेरे पास नहीं था। 

उदास देखकर उन्होंने मुझे गोद में बिठा लिया। कुछ देर सोचने के बाद मैंने अगला सवाल किया। 

आपको आपकी जानू कहाँ छे मिली ?? 

मेरे पापा लेकर आए थे.... उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा। 

मुजे बी मेली जानू चाईये.... आंखों में चमक भरते हुए मैंने कहा। 

लेकिन प्रिंसेज़, जानू तो तब मिलती है जब आप बड़े हो जाओ। आप तो अभी बहुत छोटे हो। 

बली तो ओ गई ऊं। देखिए.... मैं तुरंत ही गोद से उतरी और तन कर खड़ी हो गई। 

अले हाँ, आप तो छच में बली हो गई हैं... पापा ने आंखें बड़ी करते हुए आश्चर्य से कहा। 

ठीक है फ़िर, कल आपकी जानू आ जाएगी। 

छच्ची... उनके घुटनों पर हाथ रख कर मैंने आश्वासन चाहा।

मुच्ची... मेरे माथे को चूमकर उन्होंने विश्वास दिलाया। 

मैं मारे खुशी के पापा से लिपट गई और फिर भागते हुए सीधा मां के पास किचन में गई ये खुशखबरी देने। 

अगली सुबह जब नींद खुली तो एक बड़ी-सी गुड़िया मेरे पास लेटी थी.... मेरी जानू।


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✍️✍️ प्रियन श्री ✍️✍️

Wednesday 26 August 2020

🌹🌹..मेरे अल्फाज़...🌹🌹


 

Friday 14 August 2020

🌺🌺 नया जन्म - (भाग 1) 🌺🌺

 मेरा सर तेज़ दर्द से फट रहा था... पर चाहकर भी मेरा हाथ सर तक नहीं जा पा रहा था। मेरा पूरा शरीर सुन्न पड़ चुका था। अपनी बची-खुची ऊर्जा समेट कर मैं बस अपनी आंखें ही खोल पाई। अधखुली आंखों के सामने जो सबसे पहले दिखा, वो था गहरा लाल रंग.... यानि कि मेरा ख़ून। बचपन से ही ख़ून देखकर मुझे घबराहट होती थी। चक्कर आने लगते थे... पर आज जैसे कुछ महसूस ही नहीं हो रहा सिवाय दर्द के... ।

मैं.... अनाहिता शर्मा।  मेरी नई-नई नौकरी लगी है इस शहर में। नया शहर, नये लोग... और नये रास्ते। ये तो अच्छा हुआ कि रहने के लिए फ़्लैट, मेरे कार्यालय के पास ही मिल गया इसलिए आने - जाने का खर्च बच जाता है। मैं हर रोज़ नये रास्ते ढूंढा करती कार्यालय जाने के... ताकि कोई नज़दीक का रास्ता ढूंढ सकूं।

आज भी एक नये रास्ते से घर लौट रही थी। ज़्यादा चहल-पहल नहीं थी। आम सड़कों की भाग-दौड़ से दूर। मुझे ऐसी शांत राहें हमेशा से पसंद हैं, जिनपे मैं सुकून से चल सकूं।... पर अचानक ही पीछे से एक ट्रक का हार्न सुनाई दिया। मुड़कर देखा तो सांसें थम गईं... ट्रक ऐसे चल रहा था जैसे उसके ब्रेक फ़ेल हो गये हों। मैं तुरंत ही रास्ते से उतर कर सड़क से दूर जाने लगी... पर होनी का लिखा कौन टाल सकता है..!! 

उसके बाद मेरी आंखें अब खुली थीं। तभी एक तेज़ रोशनी चमकी। सुना था कि मौत के ठीक पहले ऐसी ही रोशनी दिखाई देती है। दिल बैठ गया इस ख़्याल से। धीरे-धीरे कुछ सफ़ेद साये मेरी ओर बढ़ते दिखे। क्या मेरा अंत समय आ गया है...??? नहीं... अभी मुझे जीना है।

"हे ईश्वर, मुझे बचा लो।" जीवन भर नास्तिक रहने वाली मैं, आज इस आख़िरी वक्त में ईश्वर पर भरोसा कर रही थी। बस..... उसके बाद क्या हुआ, याद नहीं।

इस बार किसी की नर्म हथेलियों के स्पर्श से मेरी आंखें खुली। सामने सफेद कपड़ो में एक देवी नज़र आई। मुझे लगा मैं स्वर्ग पहुंच गई हूँ।

"अब कैसा लग रहा है बेटा....!!!" 

एक अर्से बाद ये शब्द सुन कर मन भींग गया। 

तुम्हारा एक्सीडेंट हो गया था। सीवियर ब्रेन इंजरी हुई थी... पर 4 डॉक्टरों की टीम ने 7 घंटे तक तुम्हारा आपरेशन किया। और अब तुम ख़तरे से बाहर हो।

क्यों.... मुझ अनाथ का क्या रिश्ता था उनसे जो उन्होंने मुझे बचाने के लिए इतनी मेहनत की..?? मैं बोल तो नहीं पा रही थी पर ऐसे कई विचार मन में आ रहे थे।

तभी डाॅक्टर आये। मेरा चेक-अप किया... और मैं सुन्न पड़ी ये सब देख रही थी। जाने से पहले उन्होंने मेरे सर पर हाथ रखकर कहा - "जल्दी से ठीक हो जाओ।" 

ये मेरी श्रद्धा थी या धन्यवाद.... मेरी आंखों से आंसू ढुलकने लगे।

ये वो "वाइट वारियर्स" थे जिन्होंने मौत से जंग लड़के मेरी ज़िन्दगी को जीता था....मेरे लिए...उपहारस्वरूप।


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✍️✍️ प्रियन श्री ✍️✍️

Thursday 23 July 2020

🏵️ अयोध्या के राम नेपाली हैं 🏵️



नेपाल के प्रधानमंत्री के पी शर्मा 'ओली' आजकल लगातार सुर्खियों में हैं। कभी चीन से बढ़ती नजदीकियों को लेकर तो कभी भारत से बढ़ती दूरियों को लेकर... उनका लगभग हर नया वक्तव्य, एक नया विवाद खड़ा कर देता है। हालिया विवाद तब उत्पन्न हुआ जब वो अपने आवास पर कवि भानुभक्त  की 207वीं जयंती पर हो रहे एक समारोह को संबोधित कर रहे थे, जिन्होंने नेपाली भाषा में रामायण लिखी थी। यहां ओली ने बयान दिया कि भगवान राम भारतीय नहीं बल्कि नेपाली थे और असली अयोध्या काठमांडू से 135 किमी0 दूर बीरगंज का एक छोटा सा गांंव थोरी है न कि भारत में... हमारा सांस्कृतिक दमन किया गया है और तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा गया है। 

अपने दावों को पुख़्ता करने के लिए उन्होंने 3 सवाल भी किये-

1. जिस अयोध्या का दावा भारत के उत्तर प्रदेश में किया जाता है, वहां से सीता विवाह करने के लिए भगवान राम जनकपुर कैसे आए? 
2. उस समय कोई फोन नहीं थे तो उन्होंने संवाद कैसे किया? 
3. उस दौरान विवाह केवल पास के राज्यों में होते थे। कोई भी शादी करने के लिए इतनी दूर नहीं जाता था। 

हालांकि नेपाल के ही एक सांसद ने इस पर प्रश्न किया कि यदि अयोध्या नेपाल में है तो सरयू नदी कहाँ है ? गौरतलब है कि आदिकवि वाल्मीकि से लेकर अन्य भारतीय भाषाओं में से किसी में भी श्री राम के नेपाली होने का ज़िक्र नहीं है। इनकी रचना भी आधुनिक भारत से पूर्व की है अतः जानबूझ कर ऐसा किया हो, संभव नहीं है। बहरहाल, यदि आपको लगता है कि ये धार्मिक मसला है तो आप भी गफ़लत में हैं.... कैसे, आइए जानते हैं... 

दरअसल ये पूरा मामला राजनैतिक है। नेपाल में इस समय खड्ग प्रसाद शर्मा 'ओली' के नेतृत्व में CPN-UML और पुष्प कमल दहल 'प्रचंड' के नेतृत्व में CPN- माओवादी की वामपंथी गठबंधन की सरकार है। इस समय दोनों पक्षों में सरकार के नेतृत्व को लेकर ज़बरदस्त खींचतान मची हुई है।चूंकि ये एक कम्युनिस्ट सरकार है तो स्वभावतः चीन के करीब है, जो इस समय कोरोना वायरस के कारण चहुंओर से घिरा हुआ है। जिससे ध्यान भटकाने के लिए वो आक्रामक रणनीति अपना रहा है। दक्षिणी चीन सागर में बढ़ती गतिविधियाँ, ऑस्टेलिया के साथ विवाद, ट्रेड वार और हाल ही में भारत की गलवान घाटी में अतिक्रमण तथा ख़ूनी मुठभेड़ इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। 

वो हर देश जो चीन को वैश्विक स्तर पर घेरने की कोशिश कर रहा है। चीन उसके साथ बुरी तरह उलझ रहा है और भारत से तो उसकी पुरानी दोस्ती है- "हिंदी - चीनी, भाई - भाई", जिसकी आड़ में वो भारत की जड़ खोदता रहता है। उसी के प्रभाव में ओली कभी अपनी सरकार को अस्थिर करने, तो कभी सांस्कृतिक दमन का आरोप, भारत पर लगाते हैं। हालिया विवादों की शुरुआत तब से होती है जब रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने 8 मई को उत्तराखंड के लिपुलेख दर्रे को धारचुला से जोड़ने वाली रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण 80 km लंबी सड़क का उद्घाटन किया था। इस पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए नेपाल ने कहा कि यह सड़क नेपाली क्षेत्र से होकर गुजरती है। 

इसके पूर्व अगस्त, 2019 में जब भारत ने J&k को केंद्र शासित प्रदेश में तब्दील किया और नया नक्शा जारी किया, तब भी उसने विरोध किया था। इसके लिए उसने अपने नक्शे में संशोधन कर उत्तराखंड से लगे लिपुलेख, कालापानी तथा लिंपियाधुरा क्षेत्र को शामिल कर लिया है । पड़ोसी देशों में सीमा विवाद कोई नई बात नहीं है लेकिन ऐसी आक्रामकता निःसंदेह चीन का असर है। इस परिप्रेक्ष्य में एक नाम उभरता है - हाओ यांकि, ये 2018 से नेपाल में चीन की राजदूत हैं। 

 
वर्तमान नेपाली राजनीति में इनका काफ़ी दख़ल है। हालिया राजनीतिक खींचातानी को कम करने के लिए वो सांसदों के संपर्क में थीं। यहां तक कि बिना विदेश मंत्रालय को सूचित किये उन्होंने राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी से मुलाकात भी की। इस प्रोटोकॉल उल्लंघन पर विदेश मंत्रालय ने भी कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की। वैसे काबिलेगौर है कि ऐसी बाहरी दख़लंदाजी नेपाल की संप्रभुता के लिए भारी पड़ सकती है। हालांकि कुछ सांसद और छात्र समूह इसका मुखर विरोध कर रहे हैं। 

नेपाल एक ऐसा राष्ट्र है जिसके साथ भारत का रोटी-बेटी का संबंध रहा है। यानि कि दोनों तरफ़ के लोग रोज़गार और वैवाहिक संबंधों द्वारा जुड़े हैं। लेकिन हाल ही में नेपाल एक नागरिकता संशोधन विधेयक लाया है जिसके अनुसार यदि भारत की कोई महिला, किसी नेपाली पुरूष से विवाह करती है तो उसे प्राकृतिक नागरिकता 7 साल बाद मिलेगी। जबकि भारत में नेपाली बहुओं के लिए ऐसा कानून नहीं है। नेपाली तराई के मधेशी बहुल क्षेत्रों में इसका प्रभाव पड़ना लाज़मी है। 

नेपाल जैसे निकट मित्र का ऐसा व्यवहार चिंतनीय है। हालिया समय में बांग्लादेश, श्रीलंका और मालदीव से भी भारत को झटके मिल चुके हैं। ये हालात परेशान करने वाले हैं जबकि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में शांति के लिए एक स्थिर तथा मज़बूत भारत की दरक़ार है। 

वैसे बात अगर PM ओली के दावों की करें तो अलेक्जेंडर का यूनान से भारत आना भी असंभव है और पुर्तगाल, हाॅलैंड और ब्रिटेन का एशिया तथा अफ्रीका को उपनिवेश बनाना तो नामुमकिन ही समझो.... तो क्या इनका इतिहास फिर से लिखने की ज़रूरत है...!!!

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✍️✍️ प्रियन श्री ✍️✍️

Monday 13 July 2020

🍃🍃... सिंदूर ... 🍃🍃


"विवाह" - एक पवित्र बंधन, जो परस्पर प्रेम और विश्वास की नींव पर टिका होता है। वहीं हिंदू धर्म में "तलाक" को उचित नहीं माना जाता क्योंकि ऐसी मान्यता है कि जोड़ियां ऊपरवाला बनाता है... और ये कोई आजकल का नहीं बल्कि 7 जन्मों का नाता है। किंतु समय के साथ मान्यताएं बदल जाती हैं। आज के युग में तलाक आम बात है। पर कई बार उनके कारण सोचने पर विवश कर देते हैं... 

अभी हाल ही में गुवाहाटी हाई कोर्ट  के मुख्य न्यायाधीश अजय लांबा और न्यायमूूर्ति सौमित्र सैकिया ने तलाक के एक मामले में फ़ैैसला देते हुए कहा कि - "पत्नी का सिंदूर और शांखा पोला पहनने से इंकार करना उसे कुंंवारी दिखाता है। इसका साफ़ मतलब है कि वह अपना विवाह जारी नहीं रखना चाहती।" 

आसान शब्दों में अगर कोई विवाहित स्त्री सुहागन होने की निशानियां धारण नहीं करती है तो वो अपनी शादी की इज़्ज़त नहीं करती और उस शादी में नहीं रहना चाहती। ऐसी स्त्री से तलाक लेने को कोर्ट मंज़ूरी देता है। यानि कि सिर्फ़ इस बिनाह पर पति अपनी पत्नी से तलाक ले सकता है और बिना किसी जद्दोजहद के वो उसे मिल भी जाएगा। हालांकि हाई कोर्ट से पहले फ़ैमिली कोर्ट ने पति को जमकर लताड़ लगाई थी और यह कहकर तलाक देने से इंकार कर दिया था कि पत्नी ने उसके साथ कोई क्रूरता नहीं की है। 

सिंदूर.... एक ब्याहता की पहचान। हिंदू रीति - रिवाज़ों में सिंदूर की महत्ता किसी से छुपी नहीं है। विवाह की रस्मों में सिंदूरदान एक अहम रस्म है। जहां वर द्वारा वधू की मांग में सिंदूर का भरा जाना एक स्त्री के जीवन का महत्वपूर्ण परिवर्तन है.... अब वह कुंवारी से विवाहित है। कुछ क्षेत्रों में ऐसी मान्यता है कि मांग में जितना लंबा सिंदूर भरा जाएगा, पति की आयु उतनी ही लंबी होगी। ( हांलाकि ये शोध का विषय है। ) 

केवल सिंदूर ही नहीं बल्कि मंगलसूत्र, पैरों की उंगलियों में पहने जाने वाले बिछुए, पंजाब में हाथों में चूड़ा तो बंगाल और पूर्वोत्तर के कुछ क्षेत्रों में शांखा पोला (लाल - सफेद कंगन).... एक स्त्री के सुहागन होने के द्योतक हैं। सोलह श्रृंगार के अन्य श्रृंगार भले ही न धारण किये जाएं परंतु क्षेत्र विशेष में उपरोक्त को धारण करना आज भी लगभग अनिवार्य है। 

यहां काबिलेगौर है कि ये सारे परिवर्तन और श्रृंगार केवल स्त्री के जीवन में होते हैं। निश्चित रूप से आपने कभी किसी पुरुष को सिंदूर, मंगलसूत्र, बिछुए, पायल - चूड़ी या शंखा पोला पहने नहीं देखा होगा।  मतलब आप किसी महिला को देखकर आसानी से बता सकते हैं कि वो शादी शुदा है या नहीं... पर शर्त लगा लीजिये कि आप किसी पुरुष को देखकर ये नहीं बता सकते। 

अक्सर पुरूषों के बीच सिंदूर और बिंदी को लाल निशान यानि ख़तरे की घंटी कहकर मजाक़ होता है। मतलब यह महिला किसी और की संपत्ति है परंतु पुरूष ऐसी कोई निशानी धारण नहीं करता इसलिए वो किसी की भी संपत्ति नहीं है और वो अपनी इस आज़ादी का फ़ायदा उठा सकता है। 

यहां बात पश्चिमी सभ्यता की करें तो उनमें शादी की अंगूठी वर और वधू दोनों धारण करते हैं। जो रिश्तों में बराबरी और साझा ज़िम्मेदारियों को दर्शाता है। पर क्या ये बराबरी हमारे यहां देखने को मिलती है...!!! हमारे समाज की एक मानी हुई बात है कि ये सारी ज़िम्मेदारियां केवल स्त्री के माथे हैं। पति चाहे जैसा हो, शादी निभाने की ज़िम्मेदारी उसकी, ससुराल - मायके की ज़िम्मेदारी उसकी, घर को स्वर्ग - नर्क बनाने की ज़िम्मेदारी उसकी... 

अगर इनमें से एक भी चीज़ ग़लत हुई तो पूरा समाज उसके सर पर सवार हो जाएगा। उसके संस्कारों की जमकर लानत - मलानत की जाएगी और किसी को एक क्षण भी नहीं लगेगा उसके चरित्र का परिक्षण करने में...। पर क्या किसी ने एक बार भी गौर किया की पति की ज़िम्मेदारी नाम की भी कोई चीज़ होती है..!! जबकि पति-पत्नी एक ही गाड़ी के दो पहिये हैं, ये बात सबके ज़बान पर होती है। 

ऐसे में क्या केवल सिंदूर और शांखा पोला न पहनना इतना बड़ा गुनाह है कि उसकी सज़ा तलाक मुकर्रर की गई...!!! कारण साफ़ है - हमारी सामाजिक व्यवस्था पितृसत्तात्मक है। समय के साथ भले ही स्त्रियों ने अपनी पहचान बनाई और पर्दे की ओट से बाहर निकल कर पुरूषों के साथ कंधा मिलाकर काम करना शुरू किया पर हमारा समाज इसे आज तक पचा नहीं पाया है। 

हमारा संविधान सबको बराबरी का दर्जा देता है लेकिन उसे लागू कराने वाले लोग तो इसी पितृसत्तात्मक समाज से आते हैं। फिर चाहे वो कोई राह चलता आदमी हो या न्यायाधीश के पद पर बैठा हुआ व्यक्ति, जो लगभग हर नागरिक की आख़िरी उम्मीद है। कमोबेश सभी इस ग्रंथि से पीड़ित जान पड़ते हैं। वर्ना बजाय इसके कि कोर्ट तलाक का आदेश देती, वो ऐसी व्यवस्था करती जो इस गैरबराबरी को ख़त्म करके देश और समाज को नई राह दिखाती और विवाह जैसी संस्था की गरिमा बहाल करती....

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✍️✍️ प्रियन श्री ✍️✍️

Sunday 28 June 2020

👨🏿‍🦳👨‍🦳👨🏽‍🦳गुलामी रंगों की👱🏻‍♂️👱🏾‍♂️👱🏼‍♂️

1 दिसंबर, 1955... वो तारीख़, जो इतिहास बदलने जा रही थी। मोंटगोमरी, अलबामा में एक डिपार्टमेंटल स्टोर में दर्ज़ी का काम करने वाली अफ़्रीकी मूल की अमेरिकी रोज़ा पार्क्स रोज़ की तरह काम करके बस से घर लौट रही थीं। सवारियों से भरी उस बस में अचानक चढ़े के एक श्वेत नागरिक के लिए सीट न पाकर बस कंडक्टर ने रोज़ा और उनके बगल बैठे 2 सहयात्रियों को सीट छोड़ने के कहा। दरअसल उन दिनों अमेरिका में बसों में श्वेत और अश्वेत नागरिकों के लिए अलग - अलग सीट निर्धारित थीं लेकिन अगर श्वेत नागरिक के लिए सीट न हो तो अश्वेत नागरिकों को अपनी सीट छोड़नी पड़ती थी। वे 2 यात्री तो अपनी सीट छोड़कर खड़े हो गए लेकिन रोज़ा ने उठने से इंकार कर दिया। नियम के मुताबिक बस कंडक्टर ने पुलिस बुला ली और रोज़ा को गिरफ़्तार कर लिया गया। रिहाई के बाद 5 दिसंबर को उनसे 10 डॉलर का जुर्माना भी वसूल किया गया। 

इस घटना ने पूरे अमेरिका में तहलका मचा दिया। रंगभेद की दबी-छुपी चिंगारी ने शोलों का रूप अख़्तियार कर लिया। उसी समय संयोग से एक नीग्रो अमेरिकी पादरी मार्टिन लूथर किंग जूनियर मोंटगोमरी के ही डेक्सटर एवेन्यू बॅपटिस्ट चर्च में प्रवचन देने आए थे। इस घटना ने उन्हें इतना क्षुब्ध किया कि उन्होंने इस भेदभाव के ख़िलाफ़ अहिंसात्मक आंदोलन प्रारंभ किया। अश्वेत नागरिकों से अपील की गई कि वे नगर निगम की बसों का बहिष्कार करें। ये आंदोलन 381 दिनों तक चला। इस बीच अश्वेत लोग पैदल चलकर तथा कार पूल करके यात्राएं करते रहे। फलतः सार्वजनिक बसें सूनी हो गईं तथा नगर निगम को घाटा होने लगा। ये सत्याग्रही आंदोलन इतना सफल रहा कि सुप्रीम कोर्ट ने बसों में काले - गोरों के लिए अलग सीटों के प्रावधान को ख़त्म कर दिया। ये तो बस एक छोटी-सी शुरूआत थी जिसने विश्व पटल पर रंगभेद को ख़त्म करने की दिशा दी। 


हालांकि इन्हें इस आंदोलन की काफ़ी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। रोज़ा पार्क्स तथा उनके पति की नौकरी छूट गई। यहां तक कि उन्हें शहर भी छोड़ना पड़ा। वहीं मार्टिन लूथर किंग जूनियर की 4 अप्रैल, 1968 को हत्या कर दी गई। परंतु उनके संघर्षों ने भविष्य में रंगभेद के ख़ात्मे तथा अश्वेत लोगों के अधिकारों की नींव रखी। 

लेकिन हाल ही में एक अफ्रीकी-अमेरिकी नागरिक जार्ज फ्लॉयड की एक श्वेत पुलिसकर्मी द्वारा हत्या ने मन को उद्वेलित कर दिया। सहसा विश्वास ही नहीं हुआ कि रंगभेद आज भी अपने विकृत स्वरूप में विद्यमान है। क्या केवल कानून बना देने से समाज में असमानता समाप्त हो जाती है? नहीं.... क्योंकि समाज की अपनी मानसिकता और विचारधारा होती है। कानूनन भले ही सब बराबर हैं किन्तु गोरी चमड़ी की श्रेष्ठता वाली मानसिकता आज भी है। जो गाहे-बगाहे बाहर आ ही जाती है। 

परंतु शोचनीय यह है कि ये रंगभेद आया कहाँ से....??? दरअसल ये औपनिवेशिक मानसिकता की उपज है। जब यूरोपीय देशों ने एशिया एवं अफ्रीका में औपनिवेशिक शासन आरंभ किया तो उन्हें यहां के लोगों के रूप में सस्ते मजदूर मिल गये। औपनिवेशिक शासन के अत्याचारों से पूरी तरह बर्बाद हो चुके लोगों को दास बनाने की प्रवृत्ति जन्मी। इन दासों को वस्तुओं की तरह ख़रीदा और बेचा जाने लगा और फलतः दास प्रथा का जन्म हुआ। इन दासों के साथ जानवरों से भी बदतर सुलूक किया जाता था एवं नितांत अमानवीय परिस्थितियों में रखा जाता था।

लगभग संपूर्ण विश्व में ब्रिटेन की गोरी चमड़ी का शासन था। जिसने उनमें नैसर्गिक श्रेष्ठता का दंभ भरा। यहीं से गोरा रंग श्रेष्ठता का प्रतीक माना जाने लगा। वही मानसिकता आज भी बरकरार है। न केवल यूरोपीय देशों में अपितु एशियाई और अफ्रीकी देशों में भी.... गोरे रंग को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। 

ज़्यादा दूर क्यों जाना... अपने देश में ही देख लीजिए। हम सबने अपने संपूर्ण जीवन काल में कम से कम एक शादी तो ऐसी देखी ही होती है जिसमें दुल्हन चांद का टुकड़ा होती है और दूल्हा तावे को मात देता नज़र आता है। हमारे देश में आज भी शादी - विवाह की बातों में सुनने को मिल जाता है कि - भाई हमें तो लड़की गोरी और सुंदर चाहिए। इन सबके पीछे तर्क भी बड़ा हास्यास्पद दिया जाता है। जैसे - हमारे ख़ानदान में तो सब गोरे ही हैं। या अगर लड़का सांवला या गहरे रंग का है तो कहेंगे - हमारा वंश सुधर जाएगा। अब इस बात की क्या गारंटी है कि बच्चे गोरे ही होंगे। हो सकता है कि वो अपने पिता पर ही चले जाएं.... 

यहां एक हिंदी फिल्म के गीत की झलक देखिए - बहुत ख़ूबसूरत, मगर सांवली सी.... यानि कुल मिला - जुला के गोरा रंग एक प्रकार से सुंदरता का पैमाना बन चुका है और केवल रंग ही उस लड़की की पहचान है। कोई फ़र्क नहीं पड़ता इस बात से कि लड़की कितनी पढ़ी - लिखी और योग्य है। यदि उसका रंग सांवला या गहरा है तो वह किसी भी कोण से सुंदर नहीं है। उसे बात-बात पर काली - कलूटी जैसे ताने दिये जाते हैं। उसे याद दिलाया जाएगा कि वो अपने रंग की वजह से हीन है। ऐसी लड़कियों की शादी में तमाम तरह की दिक्कतें आती हैं, जो दहेज प्रथा को बढ़ावा देती हैं। बेटियों के गहरे रंग को माता-पिता ढेर सारे दहेज से ढकने की कोशिश करते हैं। वहीं लड़कों के बारे में आज भी मान्यता है कि - घी का लड्डू, टेढ़ो सही। 

एक ज़माना था जब गहरे रंग की लड़कियों को लड़के वाले Reject कर देते थे पर अब जबकि लड़कियां भी कामयाबी की बुलंदियों को छू रही हैं तो स्वाभाविक है कि निर्णय लेने की क्षमता उन्हें भी मिली है। इसी क्षमता का उपयोग करते हुए यदा-कदा गोरी लड़कियों द्वारा काले रंग के लड़कों को Reject करने की बात भी सुनने में आने लगी है। मज़ेदार बात यह है कि इसी विषय पर एक तथाकथित बुद्धिजीवी विदुषी का आलेख पढ़ा। जिसमें उन्होंने बताया कि लड़कियों को ऐसा नहीं करना चाहिए। हालांकि बाद में उन्होंने जिम्मेदारी निभाते हुए यह भी कहा कि लड़कों को भी ऐसा नहीं करना चाहिए। 

ख़ैर, हमारी ख़ुद की जान में ऐसी कई लड़कियां हैं जो अपने गहरे रंग की वजह से हीन भावना से ग्रस्त हैं। जबकि वो काफ़ी पढ़ी-लिखी एवं सुयोग्य हैं। उनके नैन-नक्श भी बहुत सुंदर हैं पर उनका दबा हुआ रंग, उनकी वास्तविक सुंदरता - मन की सुंदरता को भी छुपा लेता है क्योंकि मन की सुंदरता भला किसे दिखती है....!!! सबसे बड़ी बात यह कि उन्होंने स्वयं को हीन स्वीकार कर लिया है.... 

इसके अलावा गोरेपन की क्रीम ने अलग ही स्यापा खड़ा कर रखा है। महिलाओं के लिए अलग तथा पुरुषों के लिए अलग गोरेपन की क्रीमों से पूरा बाज़ार पटा पड़ा है। जो संभवतः विश्व के सबसे बड़े व्यवसायों में से एक है। इनके ब्रांड के प्रचार के लिए गोरी चिट्टी फिल्म अभिनेत्रियों को Hire किया जाता है। ऐसा ही एक प्रस्ताव कंगना रूनौत के पास भी गया था, जिसे उन्होंने यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि - मेरी बहन भी सांवली है। अगर मैं गोरेपन की क्रीम का प्रचार करूंगी तो उसे कैसा लगेगा..!!! ऐसे कुछ उदाहरण ही उम्मीद देते हैं। 

ऐसा नहीं है कि रंगभेद समाज के इसी स्तर पर है। बल्कि देखा जाता है कि कई बार आपका गोरा रंग नौकरी मिलने तथा पदोन्नति को भी प्रभावित करता है। इन्हीं सब कारणों से लोग इन क्रीमों की तरफ़ भागते हैं। 

अभी कुछ दिन पहले ही वेस्टइंडीज क्रिकेट टीम के बेहतरीन खिलाड़ी डेरेन सैमी ने बताया कि जब वो IPL में सनराइजर्स हैदराबाद की तरफ़ से खेलते थे तो टीम के साथी खिलाड़ी उन्हें कालू बुलाते थे। पर तब उन्हें इसका मतलब नहीं पता था और आज जब वो जान गए हैं तो उन्हें इस बात का मलाल है कि उन्हें उनकी काबिलियत के बजाय उनकी त्वचा के रंग पहचाना जाता था। 

गोरे रंग का आतंक किस कदर छाया है...!!! इसे इस उदाहरण द्वारा देखें - जब हम keypad पर emozy type करते हैं तो वह हमें कई रंगों के विकल्प देता है और स्वभावानुरूप हम उसमें गोरे रंग का ही चुनाव करते हैं। ऐसा करने के लिए हमें कोई बाध्य नहीं करता बल्कि हमारी आंतरिक चेतना हमें गोरे रंग का चयन करने के लिए उकसाती है। 





राहत की ख़बर ये है फ़ेयर & लवली, इमामी तथा लैक्मे जैसी कंपनियों ने अपने उत्पादों के नाम के साथ fair, lightening, brightening, whitening जैसे शब्दों का प्रयोग न करने की घोषणा की है। 

यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि हम क्यों नहीं स्वयं को स्वीकार कर पाते..?? हम जो भी हैं, जैसे भी हैं... ईश्वर की अनमोल रचना हैं। हमारे जैसा इस संसार में दूसरा कोई नहीं। हमारी त्वचा का रंग न तो हमें किसी से हीन बनाता है और न ही श्रेष्ठ.... अंततः हमारी योग्यता एवं मन की सुंदरता ही हमारी पहचान है।

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✍🏾✍️✍🏼 प्रियन श्री ✍🏻✍🏽✍🏿

Thursday 18 June 2020

🗿🍂एक महामारी-"डिप्रेशन"🍂🗿

देश और दुनिया फ़िलहाल एक जानलेवा संक्रामक बिमारी "नोवेल कोरोना वायरस" से जूझ रही है। जहाँ दुनिया भर में कोरोना संक्रमितों की संख्या 81 लाख को पार कर गई है तथा मृत्यु का आंकड़ा साढ़े 4 लाख के करीब है। वहीं भारत में पुष्ट मरीज़ों की संख्या साढ़े 3 लाख से ऊपर एवं जान गंवाने वालों की संख्या करीब 12,000 तक पहुंच चुकी है। स्थिति की भयावहता को ध्यान में रखते हुए वर्तमान समय को "कोरोना काल" कहना उचित ही जान पड़ता है। 

इसी बीच एक हृदयविदारक घटना ने सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। हाल ही में सिनेमा जगत के एक उम्दा कलाकार सुशांत सिंह राजपूत की दुःखद आत्महत्या की ख़बर आई । फ़िल्म जगत में वंशवाद, बाहरी कलाकारों के साथ असहयोगपूर्ण रवैये के साथ - साथ आरोप - प्रत्यारोप का सिलसिला दुर्भाग्यपूर्ण रूप से अब भी जारी है... पर इन सबके बीच एक सबसे महत्वपूर्ण बात कहीं पीछे रह गई। वो ये कि सुशांत पिछले कुछ समय से कथित रूप से गंभीर डिप्रेशन से ग्रस्त थे और इलाज भी करवा रहे थे। 

"डिप्रेशन" यानि "अवसाद या तनाव"... वो मानसिक अवस्था जिसमें व्यक्ति बहुत भारी दबाव से गुज़र रहा होता है। ये दबाव शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आर्थिक भी हो सकता है। वास्तव में तनाव या अवसाद को परिभाषित करना कठिन है क्योंकि यह कई भावनाओं का मिश्रण होता है।.... और सबसे बड़ी बात - ये एक बीमारी है। 

एक ऐसी बीमारी जो कब हमें अपनी चपेट में ले लेती है, हमें पता ही नहीं चलता, एक धीमे ज़हर की तरह...। जागरूकता का अभाव तथा डिप्रेशन को बीमारी न मानना - इसके इलाज में सबसे बड़े बाधक हैं। बजाय समय पर इलाज के, पता तो तब चलता है, जब कोई बड़ी दुर्घटना घट जाती है। यही नहीं, इसके बाद भी इसे बेवकूफ़ी और कायरता का नाम दिया गया है। ये पल्ला झाड़ने की मानसिकता ही रोगियों को अपना मर्ज़ खुलकर स्वीकार करने से रोकती है। इसके अलावा कई बार सामाजिक शर्मिंदगी के डर से भी लोग खुद को व्यक्त नहीं कर पाते और घुट- घुट कर जीना, अपनी नियती स्वीकार कर लेते हैं। जिसकी परिणति कई बार असामयिक मृत्यु का कारण बनती है। 

WHO ( विश्व स्वास्थ्य संगठन ) के अनुसार यह एक Common Mental Disorder है तथा दुनिया भर में 264 मिलियन ( साभार - WHO.int ) से अधिक लोग इस बीमारी से जूझ रहे हैं। जिसमें सभी उम्र के लोग शामिल हैं... बच्चों से लेकर बुज़ुर्ग तक। 

इतिहास में अवसाद का सर्वप्रथम लिखित प्रमाण ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में प्राप्त होता है। जब इसे शारीरिक अथवा मानसिक अवस्था न मानकर, आध्यात्मिक अवस्था माना जाता था और चर्च के पादरियों द्वारा ठीक किया जाता था। प्राचीन ग्रीस (यूनान), रोम, चीन तथा मिस्र में भी यही प्रचलित मान्यता थी। हालांकि कालांतर में यूनानी एवं रोमन चिकित्सकों ने इसे मानसिक अवस्था मानकर इलाज करना शुरू किया। तब बड़ी ही रोचक चिकित्सा पद्धतियों से इसका इलाज किया जाता था, जैसे - मालिश, खानपान, जिम्नास्टिक तथा गधे के दूध का सेवन आदि। हालांकि "पश्चिमी चिकित्सा शास्त्र के जनक - हिप्पोक्रेटस" ने सर्वप्रथम इसे बीमारी माना। 

डिप्रेशन को बीमारी मानना ही इससे जंग का पहला चरण है। दूसरा चरण है इसके लक्षणॊं की पहचान करना ताकि हम समझ सकें कि हम स्वयं या परिवार या जान - पहचान में कोई डिप्रेशन से पीड़ित है। ये लक्षण निम्नलिखित प्रकार के हैं :-

1. नकारात्मकता - डिप्रेशन से पीड़ित व्यक्ति आमतौर पर निराशा से घिरा रहता है। मन में हमेशा नकारात्मक विचार आते हैं। जैसे - अब कुछ नहीं हो सकता, सब ख़त्म हो गया, मेरे साथ कुछ भी ठीक नहीं हो सकता, मैं मनहूस हूँ आदि। 

2. थकान - डिप्रेशन का एक बड़ा लक्षण थकान की अधिकता होना है। पीड़ित व्यक्ति बिना किसी श्रम के थकावट का अनुभव करता है। इसके अलावा या तो नींद नहीं आती या बहुत ज़्यादा आती है। 

3. चिंता - इस रोग में मरीज़ हर बात में अत्यधिक चिंता करने लगता है। बिना आधार की चिंता तथा अपनी परेेशानी न बता पाने की झिझक, चिड़चिड़ाहट उत्पन्न करती है। इससे उसका व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन प्रभावित होने लगता है। 

4. भूख का एहसास - डिप्रेशन में रोगी को या तो भूख नहीं लगती या बहुत ज्यादा खाने लगता है। पर रोगी को स्वयं नहीं एहसास होता इसके बारे में। 

5. बेकाबू भावनाएँ - डिप्रेशन में रोगी बिना बात के कभी हंसता है तो कभी रोता है। वो स्वयं असमंजस में रहता है। ये डिप्रेशन के सबसे प्रभावी लक्षणॊं में से एक है। 

6. एकाग्रता की कमी - डिप्रेशन में रोगी किसी भी काम में एकाग्रचित नहीं हो पाता है। ध्यान लगाने वाले कामों में रोगी को काफ़ी समस्या का सामना करना पड़ता है। 

7. मृत्यु के प्रति झुकाव - डिप्रेशन में रोगी मृत्यु के बारे में विचार करने लगता है। उसे अपनी सारी समस्याओं का हल आत्महत्या में दिखाई देने लगता है। 

लक्षणों के निदान के पश्चात तीसरा चरण है इलाज का। एक लंबे संघर्ष एवं समय के साथ जागरूकता विकसित हुई और गंभीर शोधों से प्राप्त ज्ञान के आधार पर इसका इलाज भी संभव हुआ। 

ज्ञात जानकारी के अनुसार डिप्रेशन की वजह से दिमाग के 3 हिस्से प्रभावित होते हैं - हिप्पोकैंपस, एमिग्डेला और प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स। ये तीनों ही मस्तिष्क के बहुत महत्वपूर्ण भाग हैं जो मनुष्य की निर्णय लेने की क्षमता, याददाश्त और भावनाओं पर नियंत्रण रखते हैं। अतः इनके प्रभावित होने से मनुष्य का मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है। 

इस बीमारी के 3 चरण हैं - निम्न, मध्यम एवं गंभीर। इसके इलाज में तनाव रोधी दवाईयां महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। ये मुख्यतया 4 प्रकार की होती हैं - Serotonin, Norepinephrine, Dopamine इत्यादि । (दवाईयां बिना चिकित्सकीय परामर्श के कभी न लें) इन दवाओं से मष्तिष्क का रासायनिक संतुलन काफ़ी हद तक सुधर जाता है। हालांकि इनके असर करने में 3 से 4 हफ़्तों का समय लगता है। यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि डिप्रेशन किस श्रेणी का है। सामान्यतया 90% मरीज़ तनाव रोधी दवाईयों से ठीक हो जाते हैं किंतु मध्यम एवं गंभीर रूप से पीड़ित मरीज़ों का इलाज Psychological तथा Pharmacological पद्धति द्वारा किया जाता है। 

निश्चित रूप से सुशांत भी अपना बेहतर इलाज करवा रहे होंगे। फ़िर भी हमारे लिए सुशांत की मृत्यु दुःखद के साथ - साथ आश्चर्यजनक भी है क्योंकि हमने उनकी आख़िरी फिल्म "छिछोरे" देखी थी। जिसका विषय ही आत्महत्या का प्रतिरोध था, चाहे स्थिति जो भी हो.... । 

वैश्विक स्तर पर डिप्रेशन के मरीज़ों की संख्या तथा बढ़ती मृत्यु दर के आंकड़े डराने वाले हैं। ये बीमारी बहुत तेजी से पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले रही है और हस सब बेख़बर बने हुए हैं। आमतौर पर लगभग हर इंसान जीवन में कभी न कभी डिप्रेशन की चपेट में आता ही है। पर जानकारी के अभाव में वो कब ठीक हो गया, उसे खुद को पता नहीं चलता। या गंभीर अवसाद की स्थिति में जानलेवा कदम उठा लेता है। पर न तो व्यक्ति स्वयं और न ही परिवार जनों को समझ आता है कि ऐसा क्यों हो रहा है...??? अधिकतर तो लोग ओझा - तांत्रिक का सहारा लेते हैं। उनके विचार में ये भूत-प्रेत का चक्कर या उपरी साये की वजह से है।  ऐसे में बात बनने के बजाय बिगड़ जाती है। 

सोचने का बात यह है कि ऐसी क्या परिस्थितियां बन जाती हैं जब मज़बूत से मज़बूत इच्छाशक्ति वाला इंसान भी हिम्मत हार जाता है...!!! दरअसल जरूरी नहीं है कि यह कोई आकस्मिक घटना हो। काफ़ी लंबे समय से कोई परेशानी, बचपन की कोई बुरी घटना या किसी दुर्घटना के कारण व्यक्ति इसकी चपेट में आ जाता है। कोरोना काल में भी रोज़ी-रोटी का संकट, नौकरी चली जाना या वेतन में कटौती, ऐसी कई परिस्थितियां उत्पन्न हुई हैं जिससे डिप्रेशन में बढ़ोतरी हुई है। 

ऐसी स्थिति में काउंसिलिंग एक अच्छा और सुलभ विकल्प है। इसके द्वारा डिप्रेशन के कारणों की पहचान की जाती है। चूंकि यह एक मानसिक अवस्था है तो रोगी के मन में क्या चल रहा है, ये जानना बहुत जरूरी है। इसी से इसके इलाज के रास्ते खुलते हैं। कई मामलों में केवल काउंसलिंग तथा कई मामलों में काउंसलिंग के साथ- साथ दवाईयां लेने से ही मरीज़ ठीक हो जाता है। पर स्तिथि गंभीर होने पर ECT (Electroconvulsive therapy) भी दी जाती है। 

दवाईयां और थेरेपी अपनी जगह हैं। पर ऐसी स्थिति में अपनों का साथ बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। एक तो ये बीमारी इंसान को सबसे दूर कर देती है, ऊपर से अकेलापन उसे अंदर तक तोड़ देता है। इस परिस्थिति में परिवार एवं दोस्त संजीवनी साबित होते हैं। अतः केवल watsapp और fb पर chat करना ही पर्याप्त नहीं है। बल्कि नियम बना लें कि weekend में सबसे फोन पर बात करनी है तथा मिलना - जुलना भी बनाए रखें। 

अपने अपनों को ये एहसास दिलाएं कि आप उनकी हर अच्छी - बुरी परिस्थिति में उनके साथ हैं। उनमें ये विश्वास जगाएं कि वे अपनी हर उलझन आपके सामने बेझिझक रख सकें, बिना ये सोचे कि आप क्या उनके बारे में क्या सोचेंगे या कहीं उनका मजा़क तो नहीं उड़ाएंगे। क्या पता कब कोई एक छोटा सा सहारा ढूंढ रहा हो और आपके द्वारा दिया गया ये छोटा सा दिलासा, उसमें फिर से जीवन जीने की उम्मीद लौटा दे.... 

यदि आपके पास अपनी परेशानी बांटने वाला कोई नहीं है तो भी चिंता की बात नहीं है। कई गैर सरकारी संगठन, केंद्र तथा राज्य स्तर पर हेल्पलाइन नंबर पर सेवा प्रदान करते हैं। इनकी सूची google पर डिप्रेशन हेल्पलाइन नंबर पर आसानी से प्राप्त हो जाती है। जिनमें "लाइफलाइन फाउंडेशन (कोलकाता), आसरा तथा कूज (देश भर के लिए), स्पंदन (इंदौर), आशा हेल्पलाइन (चंडीगढ़) " आदि प्रमुख हैं। 

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✍️✍️ प्रियन श्री ✍️✍️

Sunday 14 June 2020

🍂🍁..ईश्वर की व्यथा..🍁🍂

मैं स्रष्टा, मैं पालनकर्ता, मैं संहारक कहलाता हूँ ।

है मेरा तो प्रिय खेल यही, कभी गिराता - कभी उठाता हूँ। 

मैं बिगाड़ता, मैं ही बनाता, मैं "होनी", मैं विधाता हूँ ।

मैं राग-द्वेष से हूँ परे, छल-दंभ न मुझको आता है।

लिखता हूँ सबके भाग्य स्वयं, सुख और दुख देता जाता हूँ।

मिलता है यश में साधुवाद, अपयश में कोसा जाता हूँ ।

पूजा जाता हूँ लाभ में मैं, हानि में निठुर हो जाता हूँ।

हैं मेरी ही सब संतानें, क्यूं मनुष्य ये न समझता है।

निज कर्मों का फल पाते हैं, जो सबको भोगना पड़ता है।

पाता हूँ उनके आनंद में शांति, दुःख में मैं अश्रु बहाता हूँ।

अपनी संतान को कष्ट देना, किसी पिता को कहाँ आता है।

आह ! मैं ईश्वर हूँ.... 

✍️✍️ प्रियन श्री ✍️✍️




Saturday 13 June 2020

🥀🥀... भूल... 🥀🥀

भूल जाता है एक पुरूष   
स्वयं को,
एक घर बनाने में...
भूल जाती है एक स्त्री
स्वयं को,
उस घर को संवारने में...
भूल जाता है एक पिता 
स्वयं को,
जब देखता है गोद में 
अपने अंश को पहली बार...
भूल जाती है एक मां 
स्वयं को,
उस अंश को संपूर्ण बनाने में...
किंतु आह..!!!
जब वही अंश भूल जाता है 
किसी और के लिए,
अपने जन्मदाताओं को...
जिन्होंने उसे 
कोशिका से शरीर,
अंश से संपूर्ण 
और 
नवजात से वयस्क 
बनाया... 
तो
तरस जाती हैं आँखें 
देखने को, 
कलेजे के टुकड़े को
एक बार... 
और आशीष देने को
उठते हाथ, 
छुपा लेते हैं 
चिंता की लकीरों से भरे 
माथे को... 
व्यथित मन भटकता है 
अतीत के कोटरों में... 
ढूंढने को उस प्रश्न का 
उत्तर... 
कि आख़िर भूल कहाँ हुई... 😔 

✍️✍️ प्रियन श्री ✍️✍️


☘️☘️...चेहरा... ☘️☘️

चेहरा....

जिसके उंचे उठे माथे में झलकता है,
एक स्त्री होने का गर्व ।

जिसकी भंवों के बीच बनते-बिगड़ते मोड़,
जाने किन उलझनों को रास्ता दिखाते हैं ।

जिसकी आधी झुकी पलकों पर बसती है चिंता,
अपनी प्राणप्रिया संतति के उज्जवल भविष्य की।

जिसकी शांत - गंभीर आंखों की गहराईयों में दफ़्न हैं,
जाने कितने ही अपमान, तिरस्कार और अभाव ।

जिसकी मुस्कान में छुपा है सुकून,
अपने सारे कर्तव्यों को सफलतापूर्वक पूरा करने का।

जिस पर तेज है एक विजेता का क्योंकि 
नतमस्तक है उस पर उंगलियाँ उठाने वाला समाज। 

जिसके फूल से कोमल गालों को चूमकर, 
होती है मेरे दिन की नयी शुरूआत। 

वो चेहरा मेरी माँ का है.... 

✍️✍️प्रियन श्री ✍️✍️


नव सृजन

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