Sunday 28 June 2020

👨🏿‍🦳👨‍🦳👨🏽‍🦳गुलामी रंगों की👱🏻‍♂️👱🏾‍♂️👱🏼‍♂️

1 दिसंबर, 1955... वो तारीख़, जो इतिहास बदलने जा रही थी। मोंटगोमरी, अलबामा में एक डिपार्टमेंटल स्टोर में दर्ज़ी का काम करने वाली अफ़्रीकी मूल की अमेरिकी रोज़ा पार्क्स रोज़ की तरह काम करके बस से घर लौट रही थीं। सवारियों से भरी उस बस में अचानक चढ़े के एक श्वेत नागरिक के लिए सीट न पाकर बस कंडक्टर ने रोज़ा और उनके बगल बैठे 2 सहयात्रियों को सीट छोड़ने के कहा। दरअसल उन दिनों अमेरिका में बसों में श्वेत और अश्वेत नागरिकों के लिए अलग - अलग सीट निर्धारित थीं लेकिन अगर श्वेत नागरिक के लिए सीट न हो तो अश्वेत नागरिकों को अपनी सीट छोड़नी पड़ती थी। वे 2 यात्री तो अपनी सीट छोड़कर खड़े हो गए लेकिन रोज़ा ने उठने से इंकार कर दिया। नियम के मुताबिक बस कंडक्टर ने पुलिस बुला ली और रोज़ा को गिरफ़्तार कर लिया गया। रिहाई के बाद 5 दिसंबर को उनसे 10 डॉलर का जुर्माना भी वसूल किया गया। 

इस घटना ने पूरे अमेरिका में तहलका मचा दिया। रंगभेद की दबी-छुपी चिंगारी ने शोलों का रूप अख़्तियार कर लिया। उसी समय संयोग से एक नीग्रो अमेरिकी पादरी मार्टिन लूथर किंग जूनियर मोंटगोमरी के ही डेक्सटर एवेन्यू बॅपटिस्ट चर्च में प्रवचन देने आए थे। इस घटना ने उन्हें इतना क्षुब्ध किया कि उन्होंने इस भेदभाव के ख़िलाफ़ अहिंसात्मक आंदोलन प्रारंभ किया। अश्वेत नागरिकों से अपील की गई कि वे नगर निगम की बसों का बहिष्कार करें। ये आंदोलन 381 दिनों तक चला। इस बीच अश्वेत लोग पैदल चलकर तथा कार पूल करके यात्राएं करते रहे। फलतः सार्वजनिक बसें सूनी हो गईं तथा नगर निगम को घाटा होने लगा। ये सत्याग्रही आंदोलन इतना सफल रहा कि सुप्रीम कोर्ट ने बसों में काले - गोरों के लिए अलग सीटों के प्रावधान को ख़त्म कर दिया। ये तो बस एक छोटी-सी शुरूआत थी जिसने विश्व पटल पर रंगभेद को ख़त्म करने की दिशा दी। 


हालांकि इन्हें इस आंदोलन की काफ़ी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। रोज़ा पार्क्स तथा उनके पति की नौकरी छूट गई। यहां तक कि उन्हें शहर भी छोड़ना पड़ा। वहीं मार्टिन लूथर किंग जूनियर की 4 अप्रैल, 1968 को हत्या कर दी गई। परंतु उनके संघर्षों ने भविष्य में रंगभेद के ख़ात्मे तथा अश्वेत लोगों के अधिकारों की नींव रखी। 

लेकिन हाल ही में एक अफ्रीकी-अमेरिकी नागरिक जार्ज फ्लॉयड की एक श्वेत पुलिसकर्मी द्वारा हत्या ने मन को उद्वेलित कर दिया। सहसा विश्वास ही नहीं हुआ कि रंगभेद आज भी अपने विकृत स्वरूप में विद्यमान है। क्या केवल कानून बना देने से समाज में असमानता समाप्त हो जाती है? नहीं.... क्योंकि समाज की अपनी मानसिकता और विचारधारा होती है। कानूनन भले ही सब बराबर हैं किन्तु गोरी चमड़ी की श्रेष्ठता वाली मानसिकता आज भी है। जो गाहे-बगाहे बाहर आ ही जाती है। 

परंतु शोचनीय यह है कि ये रंगभेद आया कहाँ से....??? दरअसल ये औपनिवेशिक मानसिकता की उपज है। जब यूरोपीय देशों ने एशिया एवं अफ्रीका में औपनिवेशिक शासन आरंभ किया तो उन्हें यहां के लोगों के रूप में सस्ते मजदूर मिल गये। औपनिवेशिक शासन के अत्याचारों से पूरी तरह बर्बाद हो चुके लोगों को दास बनाने की प्रवृत्ति जन्मी। इन दासों को वस्तुओं की तरह ख़रीदा और बेचा जाने लगा और फलतः दास प्रथा का जन्म हुआ। इन दासों के साथ जानवरों से भी बदतर सुलूक किया जाता था एवं नितांत अमानवीय परिस्थितियों में रखा जाता था।

लगभग संपूर्ण विश्व में ब्रिटेन की गोरी चमड़ी का शासन था। जिसने उनमें नैसर्गिक श्रेष्ठता का दंभ भरा। यहीं से गोरा रंग श्रेष्ठता का प्रतीक माना जाने लगा। वही मानसिकता आज भी बरकरार है। न केवल यूरोपीय देशों में अपितु एशियाई और अफ्रीकी देशों में भी.... गोरे रंग को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। 

ज़्यादा दूर क्यों जाना... अपने देश में ही देख लीजिए। हम सबने अपने संपूर्ण जीवन काल में कम से कम एक शादी तो ऐसी देखी ही होती है जिसमें दुल्हन चांद का टुकड़ा होती है और दूल्हा तावे को मात देता नज़र आता है। हमारे देश में आज भी शादी - विवाह की बातों में सुनने को मिल जाता है कि - भाई हमें तो लड़की गोरी और सुंदर चाहिए। इन सबके पीछे तर्क भी बड़ा हास्यास्पद दिया जाता है। जैसे - हमारे ख़ानदान में तो सब गोरे ही हैं। या अगर लड़का सांवला या गहरे रंग का है तो कहेंगे - हमारा वंश सुधर जाएगा। अब इस बात की क्या गारंटी है कि बच्चे गोरे ही होंगे। हो सकता है कि वो अपने पिता पर ही चले जाएं.... 

यहां एक हिंदी फिल्म के गीत की झलक देखिए - बहुत ख़ूबसूरत, मगर सांवली सी.... यानि कुल मिला - जुला के गोरा रंग एक प्रकार से सुंदरता का पैमाना बन चुका है और केवल रंग ही उस लड़की की पहचान है। कोई फ़र्क नहीं पड़ता इस बात से कि लड़की कितनी पढ़ी - लिखी और योग्य है। यदि उसका रंग सांवला या गहरा है तो वह किसी भी कोण से सुंदर नहीं है। उसे बात-बात पर काली - कलूटी जैसे ताने दिये जाते हैं। उसे याद दिलाया जाएगा कि वो अपने रंग की वजह से हीन है। ऐसी लड़कियों की शादी में तमाम तरह की दिक्कतें आती हैं, जो दहेज प्रथा को बढ़ावा देती हैं। बेटियों के गहरे रंग को माता-पिता ढेर सारे दहेज से ढकने की कोशिश करते हैं। वहीं लड़कों के बारे में आज भी मान्यता है कि - घी का लड्डू, टेढ़ो सही। 

एक ज़माना था जब गहरे रंग की लड़कियों को लड़के वाले Reject कर देते थे पर अब जबकि लड़कियां भी कामयाबी की बुलंदियों को छू रही हैं तो स्वाभाविक है कि निर्णय लेने की क्षमता उन्हें भी मिली है। इसी क्षमता का उपयोग करते हुए यदा-कदा गोरी लड़कियों द्वारा काले रंग के लड़कों को Reject करने की बात भी सुनने में आने लगी है। मज़ेदार बात यह है कि इसी विषय पर एक तथाकथित बुद्धिजीवी विदुषी का आलेख पढ़ा। जिसमें उन्होंने बताया कि लड़कियों को ऐसा नहीं करना चाहिए। हालांकि बाद में उन्होंने जिम्मेदारी निभाते हुए यह भी कहा कि लड़कों को भी ऐसा नहीं करना चाहिए। 

ख़ैर, हमारी ख़ुद की जान में ऐसी कई लड़कियां हैं जो अपने गहरे रंग की वजह से हीन भावना से ग्रस्त हैं। जबकि वो काफ़ी पढ़ी-लिखी एवं सुयोग्य हैं। उनके नैन-नक्श भी बहुत सुंदर हैं पर उनका दबा हुआ रंग, उनकी वास्तविक सुंदरता - मन की सुंदरता को भी छुपा लेता है क्योंकि मन की सुंदरता भला किसे दिखती है....!!! सबसे बड़ी बात यह कि उन्होंने स्वयं को हीन स्वीकार कर लिया है.... 

इसके अलावा गोरेपन की क्रीम ने अलग ही स्यापा खड़ा कर रखा है। महिलाओं के लिए अलग तथा पुरुषों के लिए अलग गोरेपन की क्रीमों से पूरा बाज़ार पटा पड़ा है। जो संभवतः विश्व के सबसे बड़े व्यवसायों में से एक है। इनके ब्रांड के प्रचार के लिए गोरी चिट्टी फिल्म अभिनेत्रियों को Hire किया जाता है। ऐसा ही एक प्रस्ताव कंगना रूनौत के पास भी गया था, जिसे उन्होंने यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि - मेरी बहन भी सांवली है। अगर मैं गोरेपन की क्रीम का प्रचार करूंगी तो उसे कैसा लगेगा..!!! ऐसे कुछ उदाहरण ही उम्मीद देते हैं। 

ऐसा नहीं है कि रंगभेद समाज के इसी स्तर पर है। बल्कि देखा जाता है कि कई बार आपका गोरा रंग नौकरी मिलने तथा पदोन्नति को भी प्रभावित करता है। इन्हीं सब कारणों से लोग इन क्रीमों की तरफ़ भागते हैं। 

अभी कुछ दिन पहले ही वेस्टइंडीज क्रिकेट टीम के बेहतरीन खिलाड़ी डेरेन सैमी ने बताया कि जब वो IPL में सनराइजर्स हैदराबाद की तरफ़ से खेलते थे तो टीम के साथी खिलाड़ी उन्हें कालू बुलाते थे। पर तब उन्हें इसका मतलब नहीं पता था और आज जब वो जान गए हैं तो उन्हें इस बात का मलाल है कि उन्हें उनकी काबिलियत के बजाय उनकी त्वचा के रंग पहचाना जाता था। 

गोरे रंग का आतंक किस कदर छाया है...!!! इसे इस उदाहरण द्वारा देखें - जब हम keypad पर emozy type करते हैं तो वह हमें कई रंगों के विकल्प देता है और स्वभावानुरूप हम उसमें गोरे रंग का ही चुनाव करते हैं। ऐसा करने के लिए हमें कोई बाध्य नहीं करता बल्कि हमारी आंतरिक चेतना हमें गोरे रंग का चयन करने के लिए उकसाती है। 





राहत की ख़बर ये है फ़ेयर & लवली, इमामी तथा लैक्मे जैसी कंपनियों ने अपने उत्पादों के नाम के साथ fair, lightening, brightening, whitening जैसे शब्दों का प्रयोग न करने की घोषणा की है। 

यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि हम क्यों नहीं स्वयं को स्वीकार कर पाते..?? हम जो भी हैं, जैसे भी हैं... ईश्वर की अनमोल रचना हैं। हमारे जैसा इस संसार में दूसरा कोई नहीं। हमारी त्वचा का रंग न तो हमें किसी से हीन बनाता है और न ही श्रेष्ठ.... अंततः हमारी योग्यता एवं मन की सुंदरता ही हमारी पहचान है।

ये आलेख आपको कैसा लगा, अवश्य बताएं। आपकी प्रतिक्रियाएं, आलोचनाएँ एवं सुझाव सादर आमंत्रित हैं 🙏

✍🏾✍️✍🏼 प्रियन श्री ✍🏻✍🏽✍🏿

28 comments:

  1. विचारणीय आलेख।

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  2. बहुत ही सार्थक लेख,so beautiful 👌👌🌹💐

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    1. धन्यवाद 🙏... यदि कमेंट के नीचे अपना शुभ नाम लिखेंगे तो अति कृपा होगी

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  3. उम्दा लेख प्रभाविक आर्टिकल

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  4. बिलकुल सही कहा आपने मैम......हर तरफ यहीं तो हैं....गोरे रंग को सफलता का परिचायक माना जाता हैं.......

    Excellent work.......🙏🙏🙏🙏

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    1. धन्यवाद 🙏... किंतु यदि गोरा रंग ही सफलता का परिचायक होता तो बापू "राष्ट्रपिता" न होते। बस यही समझने की आवश्यकता है।

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