Thursday 23 July 2020

🏵️ अयोध्या के राम नेपाली हैं 🏵️



नेपाल के प्रधानमंत्री के पी शर्मा 'ओली' आजकल लगातार सुर्खियों में हैं। कभी चीन से बढ़ती नजदीकियों को लेकर तो कभी भारत से बढ़ती दूरियों को लेकर... उनका लगभग हर नया वक्तव्य, एक नया विवाद खड़ा कर देता है। हालिया विवाद तब उत्पन्न हुआ जब वो अपने आवास पर कवि भानुभक्त  की 207वीं जयंती पर हो रहे एक समारोह को संबोधित कर रहे थे, जिन्होंने नेपाली भाषा में रामायण लिखी थी। यहां ओली ने बयान दिया कि भगवान राम भारतीय नहीं बल्कि नेपाली थे और असली अयोध्या काठमांडू से 135 किमी0 दूर बीरगंज का एक छोटा सा गांंव थोरी है न कि भारत में... हमारा सांस्कृतिक दमन किया गया है और तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा गया है। 

अपने दावों को पुख़्ता करने के लिए उन्होंने 3 सवाल भी किये-

1. जिस अयोध्या का दावा भारत के उत्तर प्रदेश में किया जाता है, वहां से सीता विवाह करने के लिए भगवान राम जनकपुर कैसे आए? 
2. उस समय कोई फोन नहीं थे तो उन्होंने संवाद कैसे किया? 
3. उस दौरान विवाह केवल पास के राज्यों में होते थे। कोई भी शादी करने के लिए इतनी दूर नहीं जाता था। 

हालांकि नेपाल के ही एक सांसद ने इस पर प्रश्न किया कि यदि अयोध्या नेपाल में है तो सरयू नदी कहाँ है ? गौरतलब है कि आदिकवि वाल्मीकि से लेकर अन्य भारतीय भाषाओं में से किसी में भी श्री राम के नेपाली होने का ज़िक्र नहीं है। इनकी रचना भी आधुनिक भारत से पूर्व की है अतः जानबूझ कर ऐसा किया हो, संभव नहीं है। बहरहाल, यदि आपको लगता है कि ये धार्मिक मसला है तो आप भी गफ़लत में हैं.... कैसे, आइए जानते हैं... 

दरअसल ये पूरा मामला राजनैतिक है। नेपाल में इस समय खड्ग प्रसाद शर्मा 'ओली' के नेतृत्व में CPN-UML और पुष्प कमल दहल 'प्रचंड' के नेतृत्व में CPN- माओवादी की वामपंथी गठबंधन की सरकार है। इस समय दोनों पक्षों में सरकार के नेतृत्व को लेकर ज़बरदस्त खींचतान मची हुई है।चूंकि ये एक कम्युनिस्ट सरकार है तो स्वभावतः चीन के करीब है, जो इस समय कोरोना वायरस के कारण चहुंओर से घिरा हुआ है। जिससे ध्यान भटकाने के लिए वो आक्रामक रणनीति अपना रहा है। दक्षिणी चीन सागर में बढ़ती गतिविधियाँ, ऑस्टेलिया के साथ विवाद, ट्रेड वार और हाल ही में भारत की गलवान घाटी में अतिक्रमण तथा ख़ूनी मुठभेड़ इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। 

वो हर देश जो चीन को वैश्विक स्तर पर घेरने की कोशिश कर रहा है। चीन उसके साथ बुरी तरह उलझ रहा है और भारत से तो उसकी पुरानी दोस्ती है- "हिंदी - चीनी, भाई - भाई", जिसकी आड़ में वो भारत की जड़ खोदता रहता है। उसी के प्रभाव में ओली कभी अपनी सरकार को अस्थिर करने, तो कभी सांस्कृतिक दमन का आरोप, भारत पर लगाते हैं। हालिया विवादों की शुरुआत तब से होती है जब रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने 8 मई को उत्तराखंड के लिपुलेख दर्रे को धारचुला से जोड़ने वाली रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण 80 km लंबी सड़क का उद्घाटन किया था। इस पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए नेपाल ने कहा कि यह सड़क नेपाली क्षेत्र से होकर गुजरती है। 

इसके पूर्व अगस्त, 2019 में जब भारत ने J&k को केंद्र शासित प्रदेश में तब्दील किया और नया नक्शा जारी किया, तब भी उसने विरोध किया था। इसके लिए उसने अपने नक्शे में संशोधन कर उत्तराखंड से लगे लिपुलेख, कालापानी तथा लिंपियाधुरा क्षेत्र को शामिल कर लिया है । पड़ोसी देशों में सीमा विवाद कोई नई बात नहीं है लेकिन ऐसी आक्रामकता निःसंदेह चीन का असर है। इस परिप्रेक्ष्य में एक नाम उभरता है - हाओ यांकि, ये 2018 से नेपाल में चीन की राजदूत हैं। 

 
वर्तमान नेपाली राजनीति में इनका काफ़ी दख़ल है। हालिया राजनीतिक खींचातानी को कम करने के लिए वो सांसदों के संपर्क में थीं। यहां तक कि बिना विदेश मंत्रालय को सूचित किये उन्होंने राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी से मुलाकात भी की। इस प्रोटोकॉल उल्लंघन पर विदेश मंत्रालय ने भी कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की। वैसे काबिलेगौर है कि ऐसी बाहरी दख़लंदाजी नेपाल की संप्रभुता के लिए भारी पड़ सकती है। हालांकि कुछ सांसद और छात्र समूह इसका मुखर विरोध कर रहे हैं। 

नेपाल एक ऐसा राष्ट्र है जिसके साथ भारत का रोटी-बेटी का संबंध रहा है। यानि कि दोनों तरफ़ के लोग रोज़गार और वैवाहिक संबंधों द्वारा जुड़े हैं। लेकिन हाल ही में नेपाल एक नागरिकता संशोधन विधेयक लाया है जिसके अनुसार यदि भारत की कोई महिला, किसी नेपाली पुरूष से विवाह करती है तो उसे प्राकृतिक नागरिकता 7 साल बाद मिलेगी। जबकि भारत में नेपाली बहुओं के लिए ऐसा कानून नहीं है। नेपाली तराई के मधेशी बहुल क्षेत्रों में इसका प्रभाव पड़ना लाज़मी है। 

नेपाल जैसे निकट मित्र का ऐसा व्यवहार चिंतनीय है। हालिया समय में बांग्लादेश, श्रीलंका और मालदीव से भी भारत को झटके मिल चुके हैं। ये हालात परेशान करने वाले हैं जबकि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में शांति के लिए एक स्थिर तथा मज़बूत भारत की दरक़ार है। 

वैसे बात अगर PM ओली के दावों की करें तो अलेक्जेंडर का यूनान से भारत आना भी असंभव है और पुर्तगाल, हाॅलैंड और ब्रिटेन का एशिया तथा अफ्रीका को उपनिवेश बनाना तो नामुमकिन ही समझो.... तो क्या इनका इतिहास फिर से लिखने की ज़रूरत है...!!!

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✍️✍️ प्रियन श्री ✍️✍️

Monday 13 July 2020

🍃🍃... सिंदूर ... 🍃🍃


"विवाह" - एक पवित्र बंधन, जो परस्पर प्रेम और विश्वास की नींव पर टिका होता है। वहीं हिंदू धर्म में "तलाक" को उचित नहीं माना जाता क्योंकि ऐसी मान्यता है कि जोड़ियां ऊपरवाला बनाता है... और ये कोई आजकल का नहीं बल्कि 7 जन्मों का नाता है। किंतु समय के साथ मान्यताएं बदल जाती हैं। आज के युग में तलाक आम बात है। पर कई बार उनके कारण सोचने पर विवश कर देते हैं... 

अभी हाल ही में गुवाहाटी हाई कोर्ट  के मुख्य न्यायाधीश अजय लांबा और न्यायमूूर्ति सौमित्र सैकिया ने तलाक के एक मामले में फ़ैैसला देते हुए कहा कि - "पत्नी का सिंदूर और शांखा पोला पहनने से इंकार करना उसे कुंंवारी दिखाता है। इसका साफ़ मतलब है कि वह अपना विवाह जारी नहीं रखना चाहती।" 

आसान शब्दों में अगर कोई विवाहित स्त्री सुहागन होने की निशानियां धारण नहीं करती है तो वो अपनी शादी की इज़्ज़त नहीं करती और उस शादी में नहीं रहना चाहती। ऐसी स्त्री से तलाक लेने को कोर्ट मंज़ूरी देता है। यानि कि सिर्फ़ इस बिनाह पर पति अपनी पत्नी से तलाक ले सकता है और बिना किसी जद्दोजहद के वो उसे मिल भी जाएगा। हालांकि हाई कोर्ट से पहले फ़ैमिली कोर्ट ने पति को जमकर लताड़ लगाई थी और यह कहकर तलाक देने से इंकार कर दिया था कि पत्नी ने उसके साथ कोई क्रूरता नहीं की है। 

सिंदूर.... एक ब्याहता की पहचान। हिंदू रीति - रिवाज़ों में सिंदूर की महत्ता किसी से छुपी नहीं है। विवाह की रस्मों में सिंदूरदान एक अहम रस्म है। जहां वर द्वारा वधू की मांग में सिंदूर का भरा जाना एक स्त्री के जीवन का महत्वपूर्ण परिवर्तन है.... अब वह कुंवारी से विवाहित है। कुछ क्षेत्रों में ऐसी मान्यता है कि मांग में जितना लंबा सिंदूर भरा जाएगा, पति की आयु उतनी ही लंबी होगी। ( हांलाकि ये शोध का विषय है। ) 

केवल सिंदूर ही नहीं बल्कि मंगलसूत्र, पैरों की उंगलियों में पहने जाने वाले बिछुए, पंजाब में हाथों में चूड़ा तो बंगाल और पूर्वोत्तर के कुछ क्षेत्रों में शांखा पोला (लाल - सफेद कंगन).... एक स्त्री के सुहागन होने के द्योतक हैं। सोलह श्रृंगार के अन्य श्रृंगार भले ही न धारण किये जाएं परंतु क्षेत्र विशेष में उपरोक्त को धारण करना आज भी लगभग अनिवार्य है। 

यहां काबिलेगौर है कि ये सारे परिवर्तन और श्रृंगार केवल स्त्री के जीवन में होते हैं। निश्चित रूप से आपने कभी किसी पुरुष को सिंदूर, मंगलसूत्र, बिछुए, पायल - चूड़ी या शंखा पोला पहने नहीं देखा होगा।  मतलब आप किसी महिला को देखकर आसानी से बता सकते हैं कि वो शादी शुदा है या नहीं... पर शर्त लगा लीजिये कि आप किसी पुरुष को देखकर ये नहीं बता सकते। 

अक्सर पुरूषों के बीच सिंदूर और बिंदी को लाल निशान यानि ख़तरे की घंटी कहकर मजाक़ होता है। मतलब यह महिला किसी और की संपत्ति है परंतु पुरूष ऐसी कोई निशानी धारण नहीं करता इसलिए वो किसी की भी संपत्ति नहीं है और वो अपनी इस आज़ादी का फ़ायदा उठा सकता है। 

यहां बात पश्चिमी सभ्यता की करें तो उनमें शादी की अंगूठी वर और वधू दोनों धारण करते हैं। जो रिश्तों में बराबरी और साझा ज़िम्मेदारियों को दर्शाता है। पर क्या ये बराबरी हमारे यहां देखने को मिलती है...!!! हमारे समाज की एक मानी हुई बात है कि ये सारी ज़िम्मेदारियां केवल स्त्री के माथे हैं। पति चाहे जैसा हो, शादी निभाने की ज़िम्मेदारी उसकी, ससुराल - मायके की ज़िम्मेदारी उसकी, घर को स्वर्ग - नर्क बनाने की ज़िम्मेदारी उसकी... 

अगर इनमें से एक भी चीज़ ग़लत हुई तो पूरा समाज उसके सर पर सवार हो जाएगा। उसके संस्कारों की जमकर लानत - मलानत की जाएगी और किसी को एक क्षण भी नहीं लगेगा उसके चरित्र का परिक्षण करने में...। पर क्या किसी ने एक बार भी गौर किया की पति की ज़िम्मेदारी नाम की भी कोई चीज़ होती है..!! जबकि पति-पत्नी एक ही गाड़ी के दो पहिये हैं, ये बात सबके ज़बान पर होती है। 

ऐसे में क्या केवल सिंदूर और शांखा पोला न पहनना इतना बड़ा गुनाह है कि उसकी सज़ा तलाक मुकर्रर की गई...!!! कारण साफ़ है - हमारी सामाजिक व्यवस्था पितृसत्तात्मक है। समय के साथ भले ही स्त्रियों ने अपनी पहचान बनाई और पर्दे की ओट से बाहर निकल कर पुरूषों के साथ कंधा मिलाकर काम करना शुरू किया पर हमारा समाज इसे आज तक पचा नहीं पाया है। 

हमारा संविधान सबको बराबरी का दर्जा देता है लेकिन उसे लागू कराने वाले लोग तो इसी पितृसत्तात्मक समाज से आते हैं। फिर चाहे वो कोई राह चलता आदमी हो या न्यायाधीश के पद पर बैठा हुआ व्यक्ति, जो लगभग हर नागरिक की आख़िरी उम्मीद है। कमोबेश सभी इस ग्रंथि से पीड़ित जान पड़ते हैं। वर्ना बजाय इसके कि कोर्ट तलाक का आदेश देती, वो ऐसी व्यवस्था करती जो इस गैरबराबरी को ख़त्म करके देश और समाज को नई राह दिखाती और विवाह जैसी संस्था की गरिमा बहाल करती....

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✍️✍️ प्रियन श्री ✍️✍️

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