Saturday, 13 June 2020

🥀🥀... भूल... 🥀🥀

भूल जाता है एक पुरूष   
स्वयं को,
एक घर बनाने में...
भूल जाती है एक स्त्री
स्वयं को,
उस घर को संवारने में...
भूल जाता है एक पिता 
स्वयं को,
जब देखता है गोद में 
अपने अंश को पहली बार...
भूल जाती है एक मां 
स्वयं को,
उस अंश को संपूर्ण बनाने में...
किंतु आह..!!!
जब वही अंश भूल जाता है 
किसी और के लिए,
अपने जन्मदाताओं को...
जिन्होंने उसे 
कोशिका से शरीर,
अंश से संपूर्ण 
और 
नवजात से वयस्क 
बनाया... 
तो
तरस जाती हैं आँखें 
देखने को, 
कलेजे के टुकड़े को
एक बार... 
और आशीष देने को
उठते हाथ, 
छुपा लेते हैं 
चिंता की लकीरों से भरे 
माथे को... 
व्यथित मन भटकता है 
अतीत के कोटरों में... 
ढूंढने को उस प्रश्न का 
उत्तर... 
कि आख़िर भूल कहाँ हुई... 😔 

✍️✍️ प्रियन श्री ✍️✍️


6 comments:

  1. 👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌

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  2. Very well written......sach hai ye....aaj ke jamaane ka😪😪😪

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  3. एक स्त्री की मनोव्यथा, सिर्फ और सिर्फ स्त्री ही समझ सकती है, दूसरा कोई नहीं , वो हर पीड़ा को हँसकर निभाती है, अगर थोड़ी- सी चूक हो जाए, तो इसे, ना जाने किस किस नाम से पुकारी जाने लगती है, इसलिए हर स्त्री को आत्मनिर्भर होना पड़ेगा, जिससे कम से कम अपने सपने को पूरा कर सके, बस।

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    1. अत्यंत उत्तम विचार👏👏... विनम्र सहमति 🙏

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