Monday, 13 July 2020

🍃🍃... सिंदूर ... 🍃🍃


"विवाह" - एक पवित्र बंधन, जो परस्पर प्रेम और विश्वास की नींव पर टिका होता है। वहीं हिंदू धर्म में "तलाक" को उचित नहीं माना जाता क्योंकि ऐसी मान्यता है कि जोड़ियां ऊपरवाला बनाता है... और ये कोई आजकल का नहीं बल्कि 7 जन्मों का नाता है। किंतु समय के साथ मान्यताएं बदल जाती हैं। आज के युग में तलाक आम बात है। पर कई बार उनके कारण सोचने पर विवश कर देते हैं... 

अभी हाल ही में गुवाहाटी हाई कोर्ट  के मुख्य न्यायाधीश अजय लांबा और न्यायमूूर्ति सौमित्र सैकिया ने तलाक के एक मामले में फ़ैैसला देते हुए कहा कि - "पत्नी का सिंदूर और शांखा पोला पहनने से इंकार करना उसे कुंंवारी दिखाता है। इसका साफ़ मतलब है कि वह अपना विवाह जारी नहीं रखना चाहती।" 

आसान शब्दों में अगर कोई विवाहित स्त्री सुहागन होने की निशानियां धारण नहीं करती है तो वो अपनी शादी की इज़्ज़त नहीं करती और उस शादी में नहीं रहना चाहती। ऐसी स्त्री से तलाक लेने को कोर्ट मंज़ूरी देता है। यानि कि सिर्फ़ इस बिनाह पर पति अपनी पत्नी से तलाक ले सकता है और बिना किसी जद्दोजहद के वो उसे मिल भी जाएगा। हालांकि हाई कोर्ट से पहले फ़ैमिली कोर्ट ने पति को जमकर लताड़ लगाई थी और यह कहकर तलाक देने से इंकार कर दिया था कि पत्नी ने उसके साथ कोई क्रूरता नहीं की है। 

सिंदूर.... एक ब्याहता की पहचान। हिंदू रीति - रिवाज़ों में सिंदूर की महत्ता किसी से छुपी नहीं है। विवाह की रस्मों में सिंदूरदान एक अहम रस्म है। जहां वर द्वारा वधू की मांग में सिंदूर का भरा जाना एक स्त्री के जीवन का महत्वपूर्ण परिवर्तन है.... अब वह कुंवारी से विवाहित है। कुछ क्षेत्रों में ऐसी मान्यता है कि मांग में जितना लंबा सिंदूर भरा जाएगा, पति की आयु उतनी ही लंबी होगी। ( हांलाकि ये शोध का विषय है। ) 

केवल सिंदूर ही नहीं बल्कि मंगलसूत्र, पैरों की उंगलियों में पहने जाने वाले बिछुए, पंजाब में हाथों में चूड़ा तो बंगाल और पूर्वोत्तर के कुछ क्षेत्रों में शांखा पोला (लाल - सफेद कंगन).... एक स्त्री के सुहागन होने के द्योतक हैं। सोलह श्रृंगार के अन्य श्रृंगार भले ही न धारण किये जाएं परंतु क्षेत्र विशेष में उपरोक्त को धारण करना आज भी लगभग अनिवार्य है। 

यहां काबिलेगौर है कि ये सारे परिवर्तन और श्रृंगार केवल स्त्री के जीवन में होते हैं। निश्चित रूप से आपने कभी किसी पुरुष को सिंदूर, मंगलसूत्र, बिछुए, पायल - चूड़ी या शंखा पोला पहने नहीं देखा होगा।  मतलब आप किसी महिला को देखकर आसानी से बता सकते हैं कि वो शादी शुदा है या नहीं... पर शर्त लगा लीजिये कि आप किसी पुरुष को देखकर ये नहीं बता सकते। 

अक्सर पुरूषों के बीच सिंदूर और बिंदी को लाल निशान यानि ख़तरे की घंटी कहकर मजाक़ होता है। मतलब यह महिला किसी और की संपत्ति है परंतु पुरूष ऐसी कोई निशानी धारण नहीं करता इसलिए वो किसी की भी संपत्ति नहीं है और वो अपनी इस आज़ादी का फ़ायदा उठा सकता है। 

यहां बात पश्चिमी सभ्यता की करें तो उनमें शादी की अंगूठी वर और वधू दोनों धारण करते हैं। जो रिश्तों में बराबरी और साझा ज़िम्मेदारियों को दर्शाता है। पर क्या ये बराबरी हमारे यहां देखने को मिलती है...!!! हमारे समाज की एक मानी हुई बात है कि ये सारी ज़िम्मेदारियां केवल स्त्री के माथे हैं। पति चाहे जैसा हो, शादी निभाने की ज़िम्मेदारी उसकी, ससुराल - मायके की ज़िम्मेदारी उसकी, घर को स्वर्ग - नर्क बनाने की ज़िम्मेदारी उसकी... 

अगर इनमें से एक भी चीज़ ग़लत हुई तो पूरा समाज उसके सर पर सवार हो जाएगा। उसके संस्कारों की जमकर लानत - मलानत की जाएगी और किसी को एक क्षण भी नहीं लगेगा उसके चरित्र का परिक्षण करने में...। पर क्या किसी ने एक बार भी गौर किया की पति की ज़िम्मेदारी नाम की भी कोई चीज़ होती है..!! जबकि पति-पत्नी एक ही गाड़ी के दो पहिये हैं, ये बात सबके ज़बान पर होती है। 

ऐसे में क्या केवल सिंदूर और शांखा पोला न पहनना इतना बड़ा गुनाह है कि उसकी सज़ा तलाक मुकर्रर की गई...!!! कारण साफ़ है - हमारी सामाजिक व्यवस्था पितृसत्तात्मक है। समय के साथ भले ही स्त्रियों ने अपनी पहचान बनाई और पर्दे की ओट से बाहर निकल कर पुरूषों के साथ कंधा मिलाकर काम करना शुरू किया पर हमारा समाज इसे आज तक पचा नहीं पाया है। 

हमारा संविधान सबको बराबरी का दर्जा देता है लेकिन उसे लागू कराने वाले लोग तो इसी पितृसत्तात्मक समाज से आते हैं। फिर चाहे वो कोई राह चलता आदमी हो या न्यायाधीश के पद पर बैठा हुआ व्यक्ति, जो लगभग हर नागरिक की आख़िरी उम्मीद है। कमोबेश सभी इस ग्रंथि से पीड़ित जान पड़ते हैं। वर्ना बजाय इसके कि कोर्ट तलाक का आदेश देती, वो ऐसी व्यवस्था करती जो इस गैरबराबरी को ख़त्म करके देश और समाज को नई राह दिखाती और विवाह जैसी संस्था की गरिमा बहाल करती....

ये आलेख आपको कैसा लगा, अवश्य बताएं। आपकी प्रतिक्रियाएं, आलोचनाएँ एवं सुझाव, सादर आमंत्रित हैं 🙏

✍️✍️ प्रियन श्री ✍️✍️

38 comments:

  1. Superbbbbb Priyan ma'am.....u always rocks.....unique topic...👍👍👍👍👍

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  2. Good social story, very nicely presented

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  3. Good message for our socialsystem
    Mahek parwani

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  4. अगर एक औरत सिंदूर इसलिए नहीं लगाती क्योंकि उसे पसन्द नहीं है तो मै आपके इस कथन का समर्थन करता हूं, लेकिन अगर वो इसलिए नहीं लगाती जिससे लोगो को पता चले कि वो शादीशुदा है तो मै आपके इस कथन सहमत नहीं हूं।

    बाकी आपने बहुत अच्छा लिखा है

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  5. शायद इसको पढ़ने के बाद रमेश बाबू "दो चुटकी सिंदूर" की कीमत जान जाए।😂👌

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  6. Waah Priyan Ji kya baat h��

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  7. सिंदुर नही भावनाऐ मायने रखनी चाहिए,
    बहुत इच्छालेख है . .Mr.K.K

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    1. इस लेख का आशय यही है बंधु 🙏🙏

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  8. बहोत ही सुंदर आलेख प्रियन जी ...

    आज युग बदल चुका हो, हर किसी को अपने तरिके से जिने का हक है, लेकिन यह तब और अच्छे से होगा जब हमारा पुरा समाज भी इसे अपना लेगा ।

    पता नही कैसे समाज की निर्माण के वक़्त स्त्री ने अपने आप को दुय्यम मान लिया/ उसे दुय्यम स्थान कैसे मिला ?

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    1. समाज के निर्माण में तो स्त्री बराबर की सहभागी है। किंतु घर और बाहर की दुनिया के भली प्रकार संचालन के लिए स्त्री ने घर को चुना क्योंकि वह एक नया सृजन करती है और उसके देखभाल के लिए उसका घर में आवश्यक था। बस यहीं से धीरे-धीरे उसे घर में ही सीमित करने की प्रवृत्ति जन्मी। लेकिन अपनी अद्भुत क्षमताओं से अब वो घर और बाहर बख़ूबी संभाल रही है और भले ही थोड़ा अधिक समय लगे पर समाज पुनः उसे बराबर का नाम अवश्य देगा.... जिसकी शुरुआत आपसे हो चुकी है 🙏

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  9. Ye blog modi g ko bhej kr purusho ke liye bhi nisani ki guhar lagana padega

    Maindblowing blog

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    1. क्यों न इसका शुभारंभ आप ही से हो... 😃🙏

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  10. अच्छा आलेख। बधाई।

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  11. 👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👏👏

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  12. बहुत ही सुंदर आलेख है जी
    विषय बहुत अच्छा लगा

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