Sunday, 28 June 2020

👨🏿‍🦳👨‍🦳👨🏽‍🦳गुलामी रंगों की👱🏻‍♂️👱🏾‍♂️👱🏼‍♂️

1 दिसंबर, 1955... वो तारीख़, जो इतिहास बदलने जा रही थी। मोंटगोमरी, अलबामा में एक डिपार्टमेंटल स्टोर में दर्ज़ी का काम करने वाली अफ़्रीकी मूल की अमेरिकी रोज़ा पार्क्स रोज़ की तरह काम करके बस से घर लौट रही थीं। सवारियों से भरी उस बस में अचानक चढ़े के एक श्वेत नागरिक के लिए सीट न पाकर बस कंडक्टर ने रोज़ा और उनके बगल बैठे 2 सहयात्रियों को सीट छोड़ने के कहा। दरअसल उन दिनों अमेरिका में बसों में श्वेत और अश्वेत नागरिकों के लिए अलग - अलग सीट निर्धारित थीं लेकिन अगर श्वेत नागरिक के लिए सीट न हो तो अश्वेत नागरिकों को अपनी सीट छोड़नी पड़ती थी। वे 2 यात्री तो अपनी सीट छोड़कर खड़े हो गए लेकिन रोज़ा ने उठने से इंकार कर दिया। नियम के मुताबिक बस कंडक्टर ने पुलिस बुला ली और रोज़ा को गिरफ़्तार कर लिया गया। रिहाई के बाद 5 दिसंबर को उनसे 10 डॉलर का जुर्माना भी वसूल किया गया। 

इस घटना ने पूरे अमेरिका में तहलका मचा दिया। रंगभेद की दबी-छुपी चिंगारी ने शोलों का रूप अख़्तियार कर लिया। उसी समय संयोग से एक नीग्रो अमेरिकी पादरी मार्टिन लूथर किंग जूनियर मोंटगोमरी के ही डेक्सटर एवेन्यू बॅपटिस्ट चर्च में प्रवचन देने आए थे। इस घटना ने उन्हें इतना क्षुब्ध किया कि उन्होंने इस भेदभाव के ख़िलाफ़ अहिंसात्मक आंदोलन प्रारंभ किया। अश्वेत नागरिकों से अपील की गई कि वे नगर निगम की बसों का बहिष्कार करें। ये आंदोलन 381 दिनों तक चला। इस बीच अश्वेत लोग पैदल चलकर तथा कार पूल करके यात्राएं करते रहे। फलतः सार्वजनिक बसें सूनी हो गईं तथा नगर निगम को घाटा होने लगा। ये सत्याग्रही आंदोलन इतना सफल रहा कि सुप्रीम कोर्ट ने बसों में काले - गोरों के लिए अलग सीटों के प्रावधान को ख़त्म कर दिया। ये तो बस एक छोटी-सी शुरूआत थी जिसने विश्व पटल पर रंगभेद को ख़त्म करने की दिशा दी। 


हालांकि इन्हें इस आंदोलन की काफ़ी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। रोज़ा पार्क्स तथा उनके पति की नौकरी छूट गई। यहां तक कि उन्हें शहर भी छोड़ना पड़ा। वहीं मार्टिन लूथर किंग जूनियर की 4 अप्रैल, 1968 को हत्या कर दी गई। परंतु उनके संघर्षों ने भविष्य में रंगभेद के ख़ात्मे तथा अश्वेत लोगों के अधिकारों की नींव रखी। 

लेकिन हाल ही में एक अफ्रीकी-अमेरिकी नागरिक जार्ज फ्लॉयड की एक श्वेत पुलिसकर्मी द्वारा हत्या ने मन को उद्वेलित कर दिया। सहसा विश्वास ही नहीं हुआ कि रंगभेद आज भी अपने विकृत स्वरूप में विद्यमान है। क्या केवल कानून बना देने से समाज में असमानता समाप्त हो जाती है? नहीं.... क्योंकि समाज की अपनी मानसिकता और विचारधारा होती है। कानूनन भले ही सब बराबर हैं किन्तु गोरी चमड़ी की श्रेष्ठता वाली मानसिकता आज भी है। जो गाहे-बगाहे बाहर आ ही जाती है। 

परंतु शोचनीय यह है कि ये रंगभेद आया कहाँ से....??? दरअसल ये औपनिवेशिक मानसिकता की उपज है। जब यूरोपीय देशों ने एशिया एवं अफ्रीका में औपनिवेशिक शासन आरंभ किया तो उन्हें यहां के लोगों के रूप में सस्ते मजदूर मिल गये। औपनिवेशिक शासन के अत्याचारों से पूरी तरह बर्बाद हो चुके लोगों को दास बनाने की प्रवृत्ति जन्मी। इन दासों को वस्तुओं की तरह ख़रीदा और बेचा जाने लगा और फलतः दास प्रथा का जन्म हुआ। इन दासों के साथ जानवरों से भी बदतर सुलूक किया जाता था एवं नितांत अमानवीय परिस्थितियों में रखा जाता था।

लगभग संपूर्ण विश्व में ब्रिटेन की गोरी चमड़ी का शासन था। जिसने उनमें नैसर्गिक श्रेष्ठता का दंभ भरा। यहीं से गोरा रंग श्रेष्ठता का प्रतीक माना जाने लगा। वही मानसिकता आज भी बरकरार है। न केवल यूरोपीय देशों में अपितु एशियाई और अफ्रीकी देशों में भी.... गोरे रंग को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। 

ज़्यादा दूर क्यों जाना... अपने देश में ही देख लीजिए। हम सबने अपने संपूर्ण जीवन काल में कम से कम एक शादी तो ऐसी देखी ही होती है जिसमें दुल्हन चांद का टुकड़ा होती है और दूल्हा तावे को मात देता नज़र आता है। हमारे देश में आज भी शादी - विवाह की बातों में सुनने को मिल जाता है कि - भाई हमें तो लड़की गोरी और सुंदर चाहिए। इन सबके पीछे तर्क भी बड़ा हास्यास्पद दिया जाता है। जैसे - हमारे ख़ानदान में तो सब गोरे ही हैं। या अगर लड़का सांवला या गहरे रंग का है तो कहेंगे - हमारा वंश सुधर जाएगा। अब इस बात की क्या गारंटी है कि बच्चे गोरे ही होंगे। हो सकता है कि वो अपने पिता पर ही चले जाएं.... 

यहां एक हिंदी फिल्म के गीत की झलक देखिए - बहुत ख़ूबसूरत, मगर सांवली सी.... यानि कुल मिला - जुला के गोरा रंग एक प्रकार से सुंदरता का पैमाना बन चुका है और केवल रंग ही उस लड़की की पहचान है। कोई फ़र्क नहीं पड़ता इस बात से कि लड़की कितनी पढ़ी - लिखी और योग्य है। यदि उसका रंग सांवला या गहरा है तो वह किसी भी कोण से सुंदर नहीं है। उसे बात-बात पर काली - कलूटी जैसे ताने दिये जाते हैं। उसे याद दिलाया जाएगा कि वो अपने रंग की वजह से हीन है। ऐसी लड़कियों की शादी में तमाम तरह की दिक्कतें आती हैं, जो दहेज प्रथा को बढ़ावा देती हैं। बेटियों के गहरे रंग को माता-पिता ढेर सारे दहेज से ढकने की कोशिश करते हैं। वहीं लड़कों के बारे में आज भी मान्यता है कि - घी का लड्डू, टेढ़ो सही। 

एक ज़माना था जब गहरे रंग की लड़कियों को लड़के वाले Reject कर देते थे पर अब जबकि लड़कियां भी कामयाबी की बुलंदियों को छू रही हैं तो स्वाभाविक है कि निर्णय लेने की क्षमता उन्हें भी मिली है। इसी क्षमता का उपयोग करते हुए यदा-कदा गोरी लड़कियों द्वारा काले रंग के लड़कों को Reject करने की बात भी सुनने में आने लगी है। मज़ेदार बात यह है कि इसी विषय पर एक तथाकथित बुद्धिजीवी विदुषी का आलेख पढ़ा। जिसमें उन्होंने बताया कि लड़कियों को ऐसा नहीं करना चाहिए। हालांकि बाद में उन्होंने जिम्मेदारी निभाते हुए यह भी कहा कि लड़कों को भी ऐसा नहीं करना चाहिए। 

ख़ैर, हमारी ख़ुद की जान में ऐसी कई लड़कियां हैं जो अपने गहरे रंग की वजह से हीन भावना से ग्रस्त हैं। जबकि वो काफ़ी पढ़ी-लिखी एवं सुयोग्य हैं। उनके नैन-नक्श भी बहुत सुंदर हैं पर उनका दबा हुआ रंग, उनकी वास्तविक सुंदरता - मन की सुंदरता को भी छुपा लेता है क्योंकि मन की सुंदरता भला किसे दिखती है....!!! सबसे बड़ी बात यह कि उन्होंने स्वयं को हीन स्वीकार कर लिया है.... 

इसके अलावा गोरेपन की क्रीम ने अलग ही स्यापा खड़ा कर रखा है। महिलाओं के लिए अलग तथा पुरुषों के लिए अलग गोरेपन की क्रीमों से पूरा बाज़ार पटा पड़ा है। जो संभवतः विश्व के सबसे बड़े व्यवसायों में से एक है। इनके ब्रांड के प्रचार के लिए गोरी चिट्टी फिल्म अभिनेत्रियों को Hire किया जाता है। ऐसा ही एक प्रस्ताव कंगना रूनौत के पास भी गया था, जिसे उन्होंने यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि - मेरी बहन भी सांवली है। अगर मैं गोरेपन की क्रीम का प्रचार करूंगी तो उसे कैसा लगेगा..!!! ऐसे कुछ उदाहरण ही उम्मीद देते हैं। 

ऐसा नहीं है कि रंगभेद समाज के इसी स्तर पर है। बल्कि देखा जाता है कि कई बार आपका गोरा रंग नौकरी मिलने तथा पदोन्नति को भी प्रभावित करता है। इन्हीं सब कारणों से लोग इन क्रीमों की तरफ़ भागते हैं। 

अभी कुछ दिन पहले ही वेस्टइंडीज क्रिकेट टीम के बेहतरीन खिलाड़ी डेरेन सैमी ने बताया कि जब वो IPL में सनराइजर्स हैदराबाद की तरफ़ से खेलते थे तो टीम के साथी खिलाड़ी उन्हें कालू बुलाते थे। पर तब उन्हें इसका मतलब नहीं पता था और आज जब वो जान गए हैं तो उन्हें इस बात का मलाल है कि उन्हें उनकी काबिलियत के बजाय उनकी त्वचा के रंग पहचाना जाता था। 

गोरे रंग का आतंक किस कदर छाया है...!!! इसे इस उदाहरण द्वारा देखें - जब हम keypad पर emozy type करते हैं तो वह हमें कई रंगों के विकल्प देता है और स्वभावानुरूप हम उसमें गोरे रंग का ही चुनाव करते हैं। ऐसा करने के लिए हमें कोई बाध्य नहीं करता बल्कि हमारी आंतरिक चेतना हमें गोरे रंग का चयन करने के लिए उकसाती है। 





राहत की ख़बर ये है फ़ेयर & लवली, इमामी तथा लैक्मे जैसी कंपनियों ने अपने उत्पादों के नाम के साथ fair, lightening, brightening, whitening जैसे शब्दों का प्रयोग न करने की घोषणा की है। 

यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि हम क्यों नहीं स्वयं को स्वीकार कर पाते..?? हम जो भी हैं, जैसे भी हैं... ईश्वर की अनमोल रचना हैं। हमारे जैसा इस संसार में दूसरा कोई नहीं। हमारी त्वचा का रंग न तो हमें किसी से हीन बनाता है और न ही श्रेष्ठ.... अंततः हमारी योग्यता एवं मन की सुंदरता ही हमारी पहचान है।

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✍🏾✍️✍🏼 प्रियन श्री ✍🏻✍🏽✍🏿

Thursday, 18 June 2020

🗿🍂एक महामारी-"डिप्रेशन"🍂🗿

देश और दुनिया फ़िलहाल एक जानलेवा संक्रामक बिमारी "नोवेल कोरोना वायरस" से जूझ रही है। जहाँ दुनिया भर में कोरोना संक्रमितों की संख्या 81 लाख को पार कर गई है तथा मृत्यु का आंकड़ा साढ़े 4 लाख के करीब है। वहीं भारत में पुष्ट मरीज़ों की संख्या साढ़े 3 लाख से ऊपर एवं जान गंवाने वालों की संख्या करीब 12,000 तक पहुंच चुकी है। स्थिति की भयावहता को ध्यान में रखते हुए वर्तमान समय को "कोरोना काल" कहना उचित ही जान पड़ता है। 

इसी बीच एक हृदयविदारक घटना ने सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। हाल ही में सिनेमा जगत के एक उम्दा कलाकार सुशांत सिंह राजपूत की दुःखद आत्महत्या की ख़बर आई । फ़िल्म जगत में वंशवाद, बाहरी कलाकारों के साथ असहयोगपूर्ण रवैये के साथ - साथ आरोप - प्रत्यारोप का सिलसिला दुर्भाग्यपूर्ण रूप से अब भी जारी है... पर इन सबके बीच एक सबसे महत्वपूर्ण बात कहीं पीछे रह गई। वो ये कि सुशांत पिछले कुछ समय से कथित रूप से गंभीर डिप्रेशन से ग्रस्त थे और इलाज भी करवा रहे थे। 

"डिप्रेशन" यानि "अवसाद या तनाव"... वो मानसिक अवस्था जिसमें व्यक्ति बहुत भारी दबाव से गुज़र रहा होता है। ये दबाव शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आर्थिक भी हो सकता है। वास्तव में तनाव या अवसाद को परिभाषित करना कठिन है क्योंकि यह कई भावनाओं का मिश्रण होता है।.... और सबसे बड़ी बात - ये एक बीमारी है। 

एक ऐसी बीमारी जो कब हमें अपनी चपेट में ले लेती है, हमें पता ही नहीं चलता, एक धीमे ज़हर की तरह...। जागरूकता का अभाव तथा डिप्रेशन को बीमारी न मानना - इसके इलाज में सबसे बड़े बाधक हैं। बजाय समय पर इलाज के, पता तो तब चलता है, जब कोई बड़ी दुर्घटना घट जाती है। यही नहीं, इसके बाद भी इसे बेवकूफ़ी और कायरता का नाम दिया गया है। ये पल्ला झाड़ने की मानसिकता ही रोगियों को अपना मर्ज़ खुलकर स्वीकार करने से रोकती है। इसके अलावा कई बार सामाजिक शर्मिंदगी के डर से भी लोग खुद को व्यक्त नहीं कर पाते और घुट- घुट कर जीना, अपनी नियती स्वीकार कर लेते हैं। जिसकी परिणति कई बार असामयिक मृत्यु का कारण बनती है। 

WHO ( विश्व स्वास्थ्य संगठन ) के अनुसार यह एक Common Mental Disorder है तथा दुनिया भर में 264 मिलियन ( साभार - WHO.int ) से अधिक लोग इस बीमारी से जूझ रहे हैं। जिसमें सभी उम्र के लोग शामिल हैं... बच्चों से लेकर बुज़ुर्ग तक। 

इतिहास में अवसाद का सर्वप्रथम लिखित प्रमाण ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में प्राप्त होता है। जब इसे शारीरिक अथवा मानसिक अवस्था न मानकर, आध्यात्मिक अवस्था माना जाता था और चर्च के पादरियों द्वारा ठीक किया जाता था। प्राचीन ग्रीस (यूनान), रोम, चीन तथा मिस्र में भी यही प्रचलित मान्यता थी। हालांकि कालांतर में यूनानी एवं रोमन चिकित्सकों ने इसे मानसिक अवस्था मानकर इलाज करना शुरू किया। तब बड़ी ही रोचक चिकित्सा पद्धतियों से इसका इलाज किया जाता था, जैसे - मालिश, खानपान, जिम्नास्टिक तथा गधे के दूध का सेवन आदि। हालांकि "पश्चिमी चिकित्सा शास्त्र के जनक - हिप्पोक्रेटस" ने सर्वप्रथम इसे बीमारी माना। 

डिप्रेशन को बीमारी मानना ही इससे जंग का पहला चरण है। दूसरा चरण है इसके लक्षणॊं की पहचान करना ताकि हम समझ सकें कि हम स्वयं या परिवार या जान - पहचान में कोई डिप्रेशन से पीड़ित है। ये लक्षण निम्नलिखित प्रकार के हैं :-

1. नकारात्मकता - डिप्रेशन से पीड़ित व्यक्ति आमतौर पर निराशा से घिरा रहता है। मन में हमेशा नकारात्मक विचार आते हैं। जैसे - अब कुछ नहीं हो सकता, सब ख़त्म हो गया, मेरे साथ कुछ भी ठीक नहीं हो सकता, मैं मनहूस हूँ आदि। 

2. थकान - डिप्रेशन का एक बड़ा लक्षण थकान की अधिकता होना है। पीड़ित व्यक्ति बिना किसी श्रम के थकावट का अनुभव करता है। इसके अलावा या तो नींद नहीं आती या बहुत ज़्यादा आती है। 

3. चिंता - इस रोग में मरीज़ हर बात में अत्यधिक चिंता करने लगता है। बिना आधार की चिंता तथा अपनी परेेशानी न बता पाने की झिझक, चिड़चिड़ाहट उत्पन्न करती है। इससे उसका व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन प्रभावित होने लगता है। 

4. भूख का एहसास - डिप्रेशन में रोगी को या तो भूख नहीं लगती या बहुत ज्यादा खाने लगता है। पर रोगी को स्वयं नहीं एहसास होता इसके बारे में। 

5. बेकाबू भावनाएँ - डिप्रेशन में रोगी बिना बात के कभी हंसता है तो कभी रोता है। वो स्वयं असमंजस में रहता है। ये डिप्रेशन के सबसे प्रभावी लक्षणॊं में से एक है। 

6. एकाग्रता की कमी - डिप्रेशन में रोगी किसी भी काम में एकाग्रचित नहीं हो पाता है। ध्यान लगाने वाले कामों में रोगी को काफ़ी समस्या का सामना करना पड़ता है। 

7. मृत्यु के प्रति झुकाव - डिप्रेशन में रोगी मृत्यु के बारे में विचार करने लगता है। उसे अपनी सारी समस्याओं का हल आत्महत्या में दिखाई देने लगता है। 

लक्षणों के निदान के पश्चात तीसरा चरण है इलाज का। एक लंबे संघर्ष एवं समय के साथ जागरूकता विकसित हुई और गंभीर शोधों से प्राप्त ज्ञान के आधार पर इसका इलाज भी संभव हुआ। 

ज्ञात जानकारी के अनुसार डिप्रेशन की वजह से दिमाग के 3 हिस्से प्रभावित होते हैं - हिप्पोकैंपस, एमिग्डेला और प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स। ये तीनों ही मस्तिष्क के बहुत महत्वपूर्ण भाग हैं जो मनुष्य की निर्णय लेने की क्षमता, याददाश्त और भावनाओं पर नियंत्रण रखते हैं। अतः इनके प्रभावित होने से मनुष्य का मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है। 

इस बीमारी के 3 चरण हैं - निम्न, मध्यम एवं गंभीर। इसके इलाज में तनाव रोधी दवाईयां महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। ये मुख्यतया 4 प्रकार की होती हैं - Serotonin, Norepinephrine, Dopamine इत्यादि । (दवाईयां बिना चिकित्सकीय परामर्श के कभी न लें) इन दवाओं से मष्तिष्क का रासायनिक संतुलन काफ़ी हद तक सुधर जाता है। हालांकि इनके असर करने में 3 से 4 हफ़्तों का समय लगता है। यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि डिप्रेशन किस श्रेणी का है। सामान्यतया 90% मरीज़ तनाव रोधी दवाईयों से ठीक हो जाते हैं किंतु मध्यम एवं गंभीर रूप से पीड़ित मरीज़ों का इलाज Psychological तथा Pharmacological पद्धति द्वारा किया जाता है। 

निश्चित रूप से सुशांत भी अपना बेहतर इलाज करवा रहे होंगे। फ़िर भी हमारे लिए सुशांत की मृत्यु दुःखद के साथ - साथ आश्चर्यजनक भी है क्योंकि हमने उनकी आख़िरी फिल्म "छिछोरे" देखी थी। जिसका विषय ही आत्महत्या का प्रतिरोध था, चाहे स्थिति जो भी हो.... । 

वैश्विक स्तर पर डिप्रेशन के मरीज़ों की संख्या तथा बढ़ती मृत्यु दर के आंकड़े डराने वाले हैं। ये बीमारी बहुत तेजी से पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले रही है और हस सब बेख़बर बने हुए हैं। आमतौर पर लगभग हर इंसान जीवन में कभी न कभी डिप्रेशन की चपेट में आता ही है। पर जानकारी के अभाव में वो कब ठीक हो गया, उसे खुद को पता नहीं चलता। या गंभीर अवसाद की स्थिति में जानलेवा कदम उठा लेता है। पर न तो व्यक्ति स्वयं और न ही परिवार जनों को समझ आता है कि ऐसा क्यों हो रहा है...??? अधिकतर तो लोग ओझा - तांत्रिक का सहारा लेते हैं। उनके विचार में ये भूत-प्रेत का चक्कर या उपरी साये की वजह से है।  ऐसे में बात बनने के बजाय बिगड़ जाती है। 

सोचने का बात यह है कि ऐसी क्या परिस्थितियां बन जाती हैं जब मज़बूत से मज़बूत इच्छाशक्ति वाला इंसान भी हिम्मत हार जाता है...!!! दरअसल जरूरी नहीं है कि यह कोई आकस्मिक घटना हो। काफ़ी लंबे समय से कोई परेशानी, बचपन की कोई बुरी घटना या किसी दुर्घटना के कारण व्यक्ति इसकी चपेट में आ जाता है। कोरोना काल में भी रोज़ी-रोटी का संकट, नौकरी चली जाना या वेतन में कटौती, ऐसी कई परिस्थितियां उत्पन्न हुई हैं जिससे डिप्रेशन में बढ़ोतरी हुई है। 

ऐसी स्थिति में काउंसिलिंग एक अच्छा और सुलभ विकल्प है। इसके द्वारा डिप्रेशन के कारणों की पहचान की जाती है। चूंकि यह एक मानसिक अवस्था है तो रोगी के मन में क्या चल रहा है, ये जानना बहुत जरूरी है। इसी से इसके इलाज के रास्ते खुलते हैं। कई मामलों में केवल काउंसलिंग तथा कई मामलों में काउंसलिंग के साथ- साथ दवाईयां लेने से ही मरीज़ ठीक हो जाता है। पर स्तिथि गंभीर होने पर ECT (Electroconvulsive therapy) भी दी जाती है। 

दवाईयां और थेरेपी अपनी जगह हैं। पर ऐसी स्थिति में अपनों का साथ बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। एक तो ये बीमारी इंसान को सबसे दूर कर देती है, ऊपर से अकेलापन उसे अंदर तक तोड़ देता है। इस परिस्थिति में परिवार एवं दोस्त संजीवनी साबित होते हैं। अतः केवल watsapp और fb पर chat करना ही पर्याप्त नहीं है। बल्कि नियम बना लें कि weekend में सबसे फोन पर बात करनी है तथा मिलना - जुलना भी बनाए रखें। 

अपने अपनों को ये एहसास दिलाएं कि आप उनकी हर अच्छी - बुरी परिस्थिति में उनके साथ हैं। उनमें ये विश्वास जगाएं कि वे अपनी हर उलझन आपके सामने बेझिझक रख सकें, बिना ये सोचे कि आप क्या उनके बारे में क्या सोचेंगे या कहीं उनका मजा़क तो नहीं उड़ाएंगे। क्या पता कब कोई एक छोटा सा सहारा ढूंढ रहा हो और आपके द्वारा दिया गया ये छोटा सा दिलासा, उसमें फिर से जीवन जीने की उम्मीद लौटा दे.... 

यदि आपके पास अपनी परेशानी बांटने वाला कोई नहीं है तो भी चिंता की बात नहीं है। कई गैर सरकारी संगठन, केंद्र तथा राज्य स्तर पर हेल्पलाइन नंबर पर सेवा प्रदान करते हैं। इनकी सूची google पर डिप्रेशन हेल्पलाइन नंबर पर आसानी से प्राप्त हो जाती है। जिनमें "लाइफलाइन फाउंडेशन (कोलकाता), आसरा तथा कूज (देश भर के लिए), स्पंदन (इंदौर), आशा हेल्पलाइन (चंडीगढ़) " आदि प्रमुख हैं। 

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✍️✍️ प्रियन श्री ✍️✍️

Sunday, 14 June 2020

🍂🍁..ईश्वर की व्यथा..🍁🍂

मैं स्रष्टा, मैं पालनकर्ता, मैं संहारक कहलाता हूँ ।

है मेरा तो प्रिय खेल यही, कभी गिराता - कभी उठाता हूँ। 

मैं बिगाड़ता, मैं ही बनाता, मैं "होनी", मैं विधाता हूँ ।

मैं राग-द्वेष से हूँ परे, छल-दंभ न मुझको आता है।

लिखता हूँ सबके भाग्य स्वयं, सुख और दुख देता जाता हूँ।

मिलता है यश में साधुवाद, अपयश में कोसा जाता हूँ ।

पूजा जाता हूँ लाभ में मैं, हानि में निठुर हो जाता हूँ।

हैं मेरी ही सब संतानें, क्यूं मनुष्य ये न समझता है।

निज कर्मों का फल पाते हैं, जो सबको भोगना पड़ता है।

पाता हूँ उनके आनंद में शांति, दुःख में मैं अश्रु बहाता हूँ।

अपनी संतान को कष्ट देना, किसी पिता को कहाँ आता है।

आह ! मैं ईश्वर हूँ.... 

✍️✍️ प्रियन श्री ✍️✍️




Saturday, 13 June 2020

🥀🥀... भूल... 🥀🥀

भूल जाता है एक पुरूष   
स्वयं को,
एक घर बनाने में...
भूल जाती है एक स्त्री
स्वयं को,
उस घर को संवारने में...
भूल जाता है एक पिता 
स्वयं को,
जब देखता है गोद में 
अपने अंश को पहली बार...
भूल जाती है एक मां 
स्वयं को,
उस अंश को संपूर्ण बनाने में...
किंतु आह..!!!
जब वही अंश भूल जाता है 
किसी और के लिए,
अपने जन्मदाताओं को...
जिन्होंने उसे 
कोशिका से शरीर,
अंश से संपूर्ण 
और 
नवजात से वयस्क 
बनाया... 
तो
तरस जाती हैं आँखें 
देखने को, 
कलेजे के टुकड़े को
एक बार... 
और आशीष देने को
उठते हाथ, 
छुपा लेते हैं 
चिंता की लकीरों से भरे 
माथे को... 
व्यथित मन भटकता है 
अतीत के कोटरों में... 
ढूंढने को उस प्रश्न का 
उत्तर... 
कि आख़िर भूल कहाँ हुई... 😔 

✍️✍️ प्रियन श्री ✍️✍️


☘️☘️...चेहरा... ☘️☘️

चेहरा....

जिसके उंचे उठे माथे में झलकता है,
एक स्त्री होने का गर्व ।

जिसकी भंवों के बीच बनते-बिगड़ते मोड़,
जाने किन उलझनों को रास्ता दिखाते हैं ।

जिसकी आधी झुकी पलकों पर बसती है चिंता,
अपनी प्राणप्रिया संतति के उज्जवल भविष्य की।

जिसकी शांत - गंभीर आंखों की गहराईयों में दफ़्न हैं,
जाने कितने ही अपमान, तिरस्कार और अभाव ।

जिसकी मुस्कान में छुपा है सुकून,
अपने सारे कर्तव्यों को सफलतापूर्वक पूरा करने का।

जिस पर तेज है एक विजेता का क्योंकि 
नतमस्तक है उस पर उंगलियाँ उठाने वाला समाज। 

जिसके फूल से कोमल गालों को चूमकर, 
होती है मेरे दिन की नयी शुरूआत। 

वो चेहरा मेरी माँ का है.... 

✍️✍️प्रियन श्री ✍️✍️


नव सृजन

🌺🌺 नया जन्म - (भाग 11) 🌺 🌺

पिछला भाग यहां पढ़ें 👈 सारी रात घड़ी के कांटों में उलझी रही। आसपास एक घनी चुप्पी ने मौका पाकर अपना साम्राज्य खड़ा कर लिया था.... पर इस चुप्...

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